Sunday, May 29, 2011

बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है पंचमुखी हनुमान की साधना




श्री हनुमान रूद्र के अवतार माने जाते हैं। आशुतोष यानि भगवान शिव का अवतार होने से उनके समान ही श्री हनुमान थोड़ी ही भक्ति से जल्दी ही हर कलह, दु:ख व पीड़ा को दूर कर मनोवांछित फल देने वाले माने जाते हैं। श्री हनुमान चरित्र गुण, शील, शक्ति, बुद्धि कर्म, समर्पण, भक्ति, निष्ठा, कर्तव्य जैसे आदर्शों से भरा है। इन गुणों के कारण ही भक्तों के ह्रदय में उनके प्रति गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है, जो श्री हनुमान को सबसे अधिक लोकप्रिय देवता बनाती है।

श्री हनुमान के अनेक रूपों में साधना की जाती है। लोक परंपराओं में बाल हनुमान, भक्त हनुमान, वीर हनुमान, दास हनुमान, योगी हनुमान आदि प्रसिद्ध है। किंतु शास्त्रों में श्री हनुमान के एक चमत्कारिक रूप और चरित्र के बारे में लिखा गया है। वह है पंचमुखी हनुमान।

धर्मग्रंथों में अनेक देवी-देवता एक से अधिक मुख वाले बताए गए हैं। किंतु पांच मुख वाले हनुमान की भक्ति न केवल लौकिक मान्यताओं में बल्कि धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है। जानते हैं पंचमुखी हनुमान के स्वरुप और उनसे मिलने वाले शुभ फलों को -

पौराणिक कथा के अनुसार एक बार पांच मुंह वाले दैत्य ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पा लिया कि उसे अपने जैसे ही रूप वाले से मृत्यु प्राप्त हो। उसने जगत को भयंकर पीड़ा पहुंचाना शुरु किया। तब देवताओं की विनती पर श्री हनुमान से पांच मुखों वाले रूप में अवतार लेकर उस दैत्य का अंत कर दिया।

श्री हनुमान के पांच मुख पांच दिशाओं में हैं। हर रूप एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी यानि तीन आंखों और दो भुजाओं वाला है। यह पांच मुख नरसिंह, गरुड, अश्व, वानर और वराह रूप है।

पंचमुखी हनुमान का पूर्व दिशा में वानर मुख है, जो बहुत तेजस्वी है। जिसकी उपासना से विरोधी या दुश्मनों को हार मिलती है।

पंचमुखी हनुमान का पश्चिमी मुख गरूड का है, जिसके दर्शन और भक्ति संकट और बाधाओं का नाश करती है।

पंचमुखी हनुमान का उत्तर दिशा का मुख वराह रूप होता है, जिसकी सेवा-साधना अपार धन, दौलत, ऐश्वर्य, यश, लंबी आयु, स्वास्थ्य देती है।

पंचमुखी हनुमान का दक्षिण दिशा का मुख भगवान नृसिंह का है। इस रूप की भक्ति से जिंदग़ी से हर चिंता, परेशानी और डर दूर हो जाता है। पंचमुखी हनुमान का पांचवा मुख आकाश की ओर दृष्टि वाला होता है। यह रूप अश्व यानि घोड़े के समान होता है। श्री हनुमान का यह करुणामय रूप होता है, जो हर मुसीबत में रक्षा करने वाला माना जाता है।

पंचमुख हनुमान की साधना से जाने-अनजाने हुए सभी बुरे कर्म और विचारों के दोषों से छुटकारा मिलता है। वही धार्मिक रूप से ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों की कृपा भी प्राप्त होती है। इस तरह श्री हनुमान का यह अद्भुत रूप शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आध्यात्मिक आनंद और सुख देने वाला माना गया है ।

Tuesday, May 17, 2011

नारद जी की जयंती पर विशेष (जयंती 19 मई)


 ब्रह्मर्षि नारद जी



हिन्दू शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि जी, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों मे से एक माने जाते है।
देवर्षि नारद धर्म के प्रचार-प्रसार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का "मन" कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - " देवर्षीणाम्चनारद:।" देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।
वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी,स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।
इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य,क्रतु, पुलह,प्रत्यूष,प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारद जी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारद जी में पूर्णत:घटित होते हैं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारदजी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रंथ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रंथ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

Monday, May 16, 2011

पीपल का पूजन देता है सुख, समृद्धि और वैभव

‘अश्वत्थ सर्वा वृक्षाणां देवषीणां च नारद।।’



 पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती।पीपल की सेवा-पूजा करने वाले सद्गति प्राप्त करते है।पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त औरपूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है।पीपल की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता,दु:ख,दुर्भाग्य का विनाश होता है।पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु व समृद्धि प्राप्त होती है|श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार को हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है|
शास्त्रों में वैशाख मास में भगवान मधुसूदन की विधिवत अर्चना मोक्षकारी बताई गई है। इस पुण्यकारी मास में भगवान मधुसूदन की अर्चना के साथ ही पीपल वृक्ष के पूजन का प्रावधान भी स्कन्दपुराण में वर्णित है। वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से पीपल को शुभ फलदायी माना गया है।
शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व पत्तों में भगवान शिव का निवास होता है। स्कन्दपुराण के अनुसार पीपल के वृक्ष को काटना ब्रह्मा हत्या के समान पापकर्म है। यह सर्वविदित है कि पीपल भगवान मधुसूदन को बेहद प्रिय है। भगवान श्रीकृष्ण श्री भगवद्गीता में अर्जुन से कहते हैं,‘अश्वत्थ सर्वा वृक्षाणां देवषीणां च नारद।।’ अर्थात् हे अर्जुन, मैं समस्त वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूं तथा देव ऋषियों में नारद मुनि हूं। वैशाख मास में पीपल को सांसारिक सुख, वैभव व मोक्ष प्राप्ति का सहज एवं सरल साधन के रूप में वर्णित किया गया है।
पद्मपुराण में एक स्थान पर स्वयं भगवान मधुसूदन का कथन है, ‘जो पीपल वृक्ष की सेवा करके वस्त्र दान करता है, वह समस्त पापों से छूटकर अंत में विष्णु भक्त हो जाता है। कार्तिक माहात्म्य में श्री सूत जी संतों से पीपल का माहात्म्य इस प्रकार वर्णित करते हैं, ‘भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि व्रत करते हुए यदि साधक किसी संकट में पड़कर व्रत का पालन न कर पाए व विष्णुजी का मंदिर पास न हो तो उसे पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर मेरा जाप करना चाहिए, उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।’ वायव्य संहिता में भी पीपल वृक्ष की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान महादेव मां उमा से कहते हैं,‘पीपल वृक्ष के नीचे किये गये जप-पूजा का सहस्र गुना फल प्राप्त होता है।’ यह भी माना जाता है कि पीपल में अलक्ष्मी-दरिद्रा-जो कि देवी लक्ष्मी की बहन थी, का वास होता है। भगवान विष्णु व लक्ष्मीजी से प्राप्त वरदान के कारण शनिवार को जो भक्त अलक्ष्मीजी के निवास अर्थात् पीपल वृक्ष की आराधना करते हैं, उन्हें निश्चित ही शुभ फल की प्राप्ति होती है। इसी कारण शनेश्चरी अमावस्या व शनि प्रदोष होने पर पंचामृत से पीपल की अर्चना का प्रावधान शास्त्रों में वर्णित है। साधक को पीपल पूजन के पावन दिन पीपल की छाया में ‘ऊँ नम: वासुदेवाय नम:’ का  जाप करते हुए धूप-दीप व नैवेद्य से विधिवत पीपल का पूजन करना चाहिए। पीपल की विधिवत पूजा करने से साधक की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।
पीपल पूजन से न केवल साधक, बल्कि उसके पितरों का भी कल्याण संभव है। स्कंदपुराण में यहां तक कहा गया है, कि जिस व्यक्ति के पुत्र न हो, वह पीपल को ही अपना पुत्र माने।




Thursday, May 12, 2011

आद्य श्री शंकराचार्य जी




केरल प्रांत की नैसर्गिक सौंदर्य से युक्त त्रिचूर नगरी में लगभग बारह शताब्दी पूर्व नम्बूद्रि परिवार के शिवगुरु एवं आर्याम्बा के आंगन में भगवान श्री वृषायक्तेश्वर की कृपा से नायक श्री शंकर का अवतरण हुआ। यही आगे चलकर आद्य श्री शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

तत्कालीन भारत की स्थिति भयावह थी। लोकयतिक बौद्ध, जैन, वैदिक सनातन धर्म विरोधी हो चुके थे। कापालिक पाशुपत, पांचराज मतावलंबी पाखंड प्रचार में संलग्न थे। प्रत्येक संप्रदाय, पंथ उनके प्रमुख देवता की उपासना आराधना तक सीमित हो चुका था। फलस्वरूप धार्मिक एकता ही नहीं, अपितु भौगोलिक एकता की नष्टप्रायः थी। सार रूप में यह स्पष्ट था कि भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति एवं सभ्यता जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षमय थी।

ऐसे भयावह दौर में आचार्य शंकर का अवतरण परित्राणाय साधूनां विभाशाय च दुष्कृताम्‌ के अनुरूप हुआ। प्रखर बुद्धि शंकर ने संस्कृत एवं मातृभाषा मलयालम का अध्ययन एवं मनन किया। स्वल्पकाल में संपूर्ण वैदिक वाङ्गमय, पुराणेतिहास, स्मृति आदि का अध्ययन कर किया।

सुदूर दक्षिण से चलकर पुण्यशिला नर्मदा के तट पर क्रांतदर्शी भगवान शुकदेवजी के शिष्य आचार्य गौड़पाद के परमशिष्य गोविंद भगवत्पाचार्य से संन्यास दीक्षा प्राप्त की। अद्वैत-वेदांत के प्रचार-प्रसार का गुरुत्तर भार वहन करते हुए वैदिक दिग्विजय यात्रा की और चारों दिशाओं में स्थापना एवं कालांतर में उपपीठों की स्थापना की गई।

उत्तर एवं दक्षिण के सेतुबंध, प्रस्थानत्रयी के भाष्यकार, छिहोत्तर प्रकरण ग्रंथों की रचना एवं शताधिक स्तोत्रों की रसधारा की प्रवाहयुक्त गंगा का अवगाहन करवाने वाले और राष्ट्र की एकता-अखंडता के लिए समर्पित ऐसे महान विश्व गौरव आद्य श्री शंकराचार्य जी के श्री चरणों में  कोटिशः नमन।     मानवता के ज्योतिर्मय सूर्य जगद्गगुरु शंकराचार्य: एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘शंकर’, जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’
कुछ समय के पश्चात ई. सन् ६८६ में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चि, ललाट पर नेत्र चि तथा स्कंध पर शूल चि परिलक्षित कर उसे शिवावतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।                                                 अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। 'तत्त्‍‌वमसि' तुम ही ब्रह्म हो; 'अहं ब्रह्मास्मि' मै ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कत्र्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।
  

Tuesday, April 19, 2011



भाग्योत्कर्ष प्रकाशन का भगवान श्री परशुराम पर विशेषांक

Monday, April 18, 2011

श्री बजरंग बाण

संकटमोचन हनुमानाष्टक



संकटमोचन हनुमानाष्टक
बाल समय रबि भक्ष लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब छाँडि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥1॥
बालि की त्रास कपीस बसे गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो॥2॥ को नहिं.
अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥
हरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो॥3॥ को नहिं..
रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो॥
चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो॥4॥ को नहिं..
बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो॥5॥ को नहिं..
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग की फाँस सबे सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो॥6॥ को नहिं..
बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥
जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो॥7॥ को नहिं॥
काज किये बड देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥8॥ को नहिं..
दोहा :- लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

श्री बजरंग बाण




।। दोहा ।। 
निश्चय प्रेम प्रतीत ते, विनय करें सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।

जय हनुमन्त सन्त हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।।

जन के काज विलम्ब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ।।

जैसे कूदि सुन्धु वहि पारा । सुरसा बद पैठि विस्तारा ।।

आगे जाई लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुर लोका ।।

जाय विभीषण को सुख दीन्हा । सीता निरखि परम पद लीन्हा ।।

बाग उजारी सिन्धु महं बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ।।

अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेट लंक को जारा ।।

लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर मे भई ।।

अब विलम्ब केहि कारण स्वामी । कृपा करहु उन अन्तर्यामी ।।

जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता । आतुर होय दुख हरहु निपाता ।।

जै गिरिधर जै जै सुखसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ।।

जय हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारु बज्र की कीले ।।

गदा बज्र लै बैरिहिं मारो । महाराज प्रभु दास उबारो ।।

ऊँ कार हुंकार महाप्रभु धावो । बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।।

ऊँ हीं हीं हनुमन्त कपीसा । ऊँ हुं हुं हनु अरि उर शीशा ।।

सत्य होहु हरि शपथ पाय के । रामदूत धरु मारु जाय के ।।

जय जय जय हनुमन्त अगाधा । दुःख पावत जन केहि अपराधा ।।

पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा ।।

वन उपवन, मग गिरि गृह माहीं । तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ।।

पांय परों कर जोरि मनावौं । यहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।।

जय अंजनि कुमार बलवन्ता । शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।।

बदन कराल काल कुल घालक । राम सहाय सदा प्रति पालक ।।

भूत प्रेत पिशाच निशाचर । अग्नि बेताल काल मारी मर ।।

इन्हें मारु तोहिं शपथ राम की । राखु नाथ मरजाद नाम की ।।

जनकसुता हरि दास कहावौ । ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।

जय जय जय धुनि होत अकाशा । सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ।।

चरण शरण कर जोरि मनावौ । यहि अवसर अब केहि गौहरावौं ।।

उठु उठु उठु चलु राम दुहाई । पांय परों कर जोरि मनाई ।।

ऊं चं चं चं चपल चलंता । ऊँ हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता ।।

ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल । ऊँ सं सं सहमि पराने खल दल ।।

अपने जन को तुरत उबारो । सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।

यह बजरंग बाण जेहि मारै । ताहि कहो फिर कौन उबारै ।।

पाठ करै बजरंग बाण की । हनुमत रक्षा करैं प्राम की ।।

यह बजरंग बाण जो जापै । ताते भूत प्रेत सब कांपै ।।

धूप देय अरु जपै हमेशा । ताके तन नहिं रहै कलेशा ।।


।। दोहा ।।
प्रेम प्रतीतहि कपि भजै, सदा धरैं उर ध्यान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।




श्री हनुमान चालिसा




श्री हनुमान चालिसा

दोहा :

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई :

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन॥
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना॥
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै॥
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥

दोहा : 
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥

Wednesday, April 13, 2011

" वेद और पुराण - नित्यता में प्रमाण "



वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।


स्थूणा-निखनन-न्याय से वेद और पुराण की नित्यता के प्रतिपादक कुछ वचन दिये जा रहे हैं -
1 - वेद … ब्रह्मरूप
वस्तुत: वेद और पुराण ब्रह्म के स्वरुप हैं! स्वयं वेद ने अपने को ब्रह्मस्वरुप बतलाया है!
ब्रह्म स्वयम्भू । [वै. आ.]
पुराण ने इसी बात की दुहराया है -
वेद: नारायण: स्वयम  [ बृ. ना. पु. ४/१७]
ब्रह्म का स्वरुप साद-रूप, चिद-रूप और आनंदरूप होता है ।
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म [ बृहद. ३/९/२८]
चित का अर्थ होता है ज्ञान । इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सैट-स्वरुप, नित्य आनंद-रूप है, वैसे ही नित्य ज्ञान-रूप भी है । ज्ञान में शब्द के अनुवेध का होना आवश्यक रहता है…
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [वाक्यदीय]
नित्य-ज्ञान के लिये नित्य-शब्द का ही अनुवेध होना चाहिये । इस तरह नित्य-शब्द, नित्य-अर्थ, नित्य-संबध वाले वेद ब्रह्मस्वरूप सिद्ध हो जाते हैं ।
२ - पुराण… ब्रह्मस्वरूप…
वेद ने पुराण को अपने समान नित्य माना है । वह समता निम्नलिखित मन्त्र से व्यक्त होती है…
ऋच: ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [ अथर्व. ११/७/२४]
स्वयं पुराण ने अपने को ब्रह्म-स्वरुप माना है । पुराण वस्तुत: एक ही है । इसके अठारह पुराण कहे जाते हैं । ये अठारहों अवश्यक के रूप में हैं । अवश्यवी से अवश्यव भिन्न नहीं होता । पद्मपुराण ने ब्रह्म को पुराणरूप बतलाते हुए कहा है कि ब्रह्म अनेक रूपों में अवतरित होता है । उसका एक रूप पुराण भी है ।
एकं पुराणं रूपं वै ! [प. पु. स्व. खं ६२/२]
यह भी बताया है कि कौन पुराण कौन-सा अवश्व है, जैसे …
1 - ब्रह्मपुराण - भगवान का मस्तक, 2 - पद्मपुराण - हृदय, 3 - विष्णुपुराण - दाहिनी भुजा, 4 - शिवपुराण - बायीं भुजा, 5 - भागवतपुराण - ऊरू - युगल, 6 - नारदीयपुराण - नाभि, 7 - मार्कंडेयपुराण - दाहिना चरण, 8 - अग्निपुराण - बायाँ चरण, 9 - भविष्यपुराण - दाहिना घुटना, 10 - ब्रह्नवैर्तपुराण - बायाँ घुटना, 11 - लिंगपुराण - दाहिनी घुट्ठी, 12 - वराहपुराण - बायीं घुट्ठी, 13 - स्कन्दपुराण - रोयें (रोम),  14 - वामनपुराण - त्वचा,  15 - कूर्मपुराण - पीठ,  16 - मत्स्यपुराण - मेदा, 17 - गरुड़पुराण - मज्जा और 18 - ब्रह्माण्डपुराण - अस्थि ।
इस तरह वेद और पुराण जब ब्रह्मरूप हैं, तब इन्हें अनित्य कहना स्वत: बाधित है । महाप्रलय में जब ब्रह्म का सन्देश और आनंदांश विद्यामान रहते हैं, तब उसके चिदंश वेद और पुराण हैं । महाप्रलय के बाद भौतिक सृष्टि के निर्माण के लिये ब्रह्म ब्रह्मा को प्रकट करता है और जैसे-जैसे ब्रह्मा की बुद्धि का विकास होता जाता है तथा तपस्या का सहयोग मिलता जाता है, वैसे पहले ब्रह्मरूप पुराण का स्मरण होता है और पीछे वेद का प्रकाट्य होता है ।
वेदों से सृष्टि -
जब तक ब्रह्मा के पास वेद नहीं पहुंचे थे, तब तक वे सृष्टि और इसके निर्माण के विषय से अनभिज्ञ थे! पुराण और वेदों की प्राप्ति के बाद उनकी सारी दुविधाएं मिट गयीं! पश्चात इन्हीं की सहायता से भौतिक सृष्टि की रचना में समर्थ हुए! मनु ने लिखा है -
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथकसंस्थाश्च निर्ममे ॥ [मनु. १/२१]

वेद, स्मरणातीत अतीत से परम ज्ञान को व्यक्त करनेवाली देववाणी के ग्रंथ तथा हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति में जो कुछ भी उच्चतम् तथा गम्भीरतम् है, उसके आदि ड्डोत माने जाते हैं। इतर सभ्यता, संस्कृति और सम्प्रदाय की कोई भी कृति इसके समकक्ष नहीं ठहरती। हिंदू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साहित्यादि के बीज इसके अन्दर समाहित हैं, आज भी उक्त क्षेत्रें के लिये यह उपजीव्य है। इस तथ्य को भारत के ही नहीं बल्कि दूसरे देशों के कई विद्वान् भी प्रकट कर चुके हैं।
वेदों की रचना कब हुई? हिंदू धर्म में वेदों को ‘अपौरुषेय’ कहा गया है अर्थात् जिसकी रचना किसी पुरुष-विशेष द्वारा नहीं हुई। इसका तात्पर्य यह है कि वैदिक ट्टषि वेद-मंत्रें के व्यक्तिगत रचयिता नहीं थे, बल्कि वे वेद-मंत्रें के ‘द्रष्टा’ थे। यास्कराचार्य ने भी स्पष्ट लिखा है- ‘ट्टषयों मंत्रद्रष्टारा:। ट्टषि दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यव: । तद् स्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यामर्षत्।’ (निरुक्त, 2.11) अर्थात्, औपमन्यव आचार्य का भी यही मत है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति आदि विषयक मंत्रें के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करनेवाले को ही ‘ट्टषि’ के नाम से पुकारा जाता है। तपस्या या धयान करते हुए जो इन्हें स्वयंभू नित्यवेद के अर्थ का ज्ञान हुआ, इसलिए वे ‘ट्टषि’ कहलाए और वेदमंत्रें का रहस्य-सहित अर्थदर्शन ही उनका ट्टषित्व है। तैत्तिरीय आरण्यक की व्याख्या में भट्ट भास्कर ने लिखा है ‘अथ नम ट्टषिभ्य मंत्रकृदिभ्यो द्रष्टुभ्य:। दर्शनमेव कर्तव्यम्।’ (मै. स., भाग 3) अर्थात्, ट्टषियों का मंत्रद्रष्टा होना ही उनका मंत्रकर्तृत्व है। मनुस्मृति की व्याख्या में कुलार्क भट्ट ने लिखा है ‘ब्रह्माद्या ट्टषिपरियन्ता स्मारका:, न कारका:।’ अर्थात् ब्रह्मा से लेकर आज तक सभी ट्टषि वेद-मंत्रें को स्मरण रखनेवाले व पढ़ने-पढ़ानेवाले रहे हैं; कोई भी उनका कर्ता, लेखक या रचयिता नहीं है।

श्री हनुमान जयंती



प्रत्येक मास की पूर्णिमा को चन्द्र देव के लिये जो व्रत किया जाता है, वह पूर्णिमा व्रत कहलाता है. चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि के दिन राम भक्त हनुमान जी की जयंती होने के कारण, यह पूर्णिमा अन्य सभी पूर्णिमाओं से अधिक शुभ मानी गई है। 18 अप्रैल 2011 में श्री हनुमान जी का जन्म दिवस मनाया जायेगा। इसके अतिरिक्त जब पूर्णिमा तिथि के दिन चित्रा नक्षत्र हों, तो तरह-तरह की वस्तुओं को दान करने का विधान है। हनुमान जी के भक्तों को यह एक अच्छा अवसर मिला है पुण्य अर्जित करने - हनुमत भक्ति करने का बधाइयाँ - शुभकामनाएं ।
हिन्दू पंचांग के अनुसार हनुमान जयंती प्रतिवर्ष चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है।मान्यता है कि इसी पावन दिवस को भगवान राम की सेवा करने के उद्येश्य से भगवान शंकर के ग्यारहवें रूद्र ने वानरराज केसरी और अंजना के घर पुत्र रूप में जन्म लिया था। यह त्यौहार पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा व उल्लास के साथ मनाई जाती है. भक्तों की मन्नत पूर्ण करनेवाले पवनपुत्र हनुमान के जन्मोत्सव पर इनकी पूजा का बड़ा महातम्य होता है। आस्थावान भक्तों का मानना है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक केसरीनंदन की पूजा करता है तो प्रभु उसके सभी अनिष्टों को दूर कर देते हैं और उसे सब प्रकार से सुख, समृद्धि और एश्वर्य प्रदान करते हैं। इस दिन हनुमानजी की पूजा में तेल और लाल सिंदूर चढ़ाने का विधान है। हनुमान जयंती पर कई जगह श्रद्धालुओं द्वारा झांकियां निकाली जाती है, जिसमें उनके जीवन चरित्र का नाटकीय प्रारूप प्रस्तुत किया जाता है। यदि कोई इस दिन हनुमानजी की पूजा करता है तो वह शनि के प्रकोप से बचा रहता है । जय हनुमान कृपा निधान , कीजिये कल्याण ॥

Tuesday, April 12, 2011

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी...





भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महकारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
वोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।

Sunday, April 10, 2011

आज है कुलदेवी की पूजा का विशेष महत्व

चंद्रिका देवी जी  .  बक्सर ,उत्तर प्रदेश       
     चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते है क्योंकि यह नवरात्र हिन्दू कैलेण्डर के प्रथम दिन से शुरू होती है। इसलिए इस नवरात्र को बड़े नवरात्र भी कहा जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में माता के पूजन का विशेष महत्व माना गया है।दूर्गा सप्तशती के अनुसार माता ने ऐसा आर्र्शीवाद दिया था कि जो भी अष्टमी और नवमी पर मेरी महापूजा करेगा। उसके कुल में हमेशा धनधान्य  और समृद्धि के साथ मैं उसके कुल की स्वयं रक्षा करूंगी। ऐसी मान्यता है कि हर कुल की एक देवी होती हैं और कहा जाता है कि कुल देवी पूरे कुल की रक्षा करती है। नवरात्र के नौ दिनों में अष्टमी और नवमी को माता के पूजन का विशेष महत्व है। इसलिए कुल देवी का पूजन भी इन दो तिथियों को ही किया जाता है। कहते हैं कि चैत्र नवरात्र में कुलदेवी का पूजन इसीलिए किया जाता है ताकि पूरे साल कुल में हर्षोउल्लास और खुशी का माहौल रहे और कुल में जिस भी बच्चे का जन्म हो वह अपने कुल का नाम रोशन करे। इसीलिए हिन्दू समाज की लगभग हर जाति में नवरात्र में अधिकांशत: कुलदेवी का विशेष मन्त्र जप व अनुष्ठान किया जाता है।

Sunday, April 3, 2011

नवरा्त्रि पूजन - उपवास विधान


ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥

देवी का आवाहान, स्थापन और विसर्जन – ये तीनो प्रातःकालमें होते हैं । यदि नवरात्रपर्यन्त व्रत रखनेकी सामर्थ्य न हो तो (१) प्रतिपदासे सप्तमीपर्यन्त ‘अप्तरात्र’ (२) पंचमीको एकभुक्त, षष्ठीको नक्तव्रत, सप्तमी अयाचित, अष्टमीको उपवास और नवमीके पारणसे ‘पंचरात्र’ (३) सप्तमी, अष्टमी और नवमीके एकभुक्त व्रतसे ‘त्रिरात्र’ (४) आरम्भ और समाप्तिके दो व्रतोंसे ‘युग्मरात्र’ और (५) आरम्भ या समाप्तिके एक व्रतसे ‘एकरात्र’ के रुपमें जो भी किये जायँ, उन्हींसे अभीष्ट की सिद्धि - प्राप्ति होती है ।

देवी के नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीका पूजन तथा सप्तशतीका पाठ मुख्य है । यदि पाठ करना हो तो देवतुल्य पुस्तकका पूजन करके १,३,५ आदि विषम संख्याके पाठ करने चाहिये ।

देवीव्रतोंमें ‘कुमारीपूजन’ परमावश्यक माना गया है । यदि सामर्थ्य हो तो नवरात्रपर्यन्त और न हो तो समाप्तिके दिन कुमारीके चरण धोकर उसकी गन्ध-पुष्पादिसे पूजा करके मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये। दस वर्ष तक की कन्या का ही पूजन करने का विधान है ।


Thursday, March 31, 2011

चैत्र नवरात्रि



शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे चैत्र व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है।

इस वर्ष नवरात्रि का पवित्र पर्व 4 अप्रैल 2011, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा; सोमवार से प्रारंभ हो रहा है। जीवन की रीढ़ कृषि व प्राणों की रक्षा हेतु इन दोनों ही ऋतुओं में लहलहाती हुई फसलें खेत-खलिहान में आ जाती हैं। इन फसलों के रखरखाव व कीट पंतगों से रक्षा हेतु, परिवार को सुखी व समृद्ध बनाने तथा कष्टों, दुःख-दरिद्रता से छुटकारा पाने के लिए सभी वर्ग के लोग नौ दिनों तक विशेष सफाई तथा पवित्रता को महत्व देते हुए नौ देवियों की आराधना, हवनादि यज्ञ क्रियाएँ करते हैं।

यज्ञ क्रियाओं द्वारा पुनः वर्षा होती है जो धन, धान्य से परिपूर्ण करती है तथा अनेक प्रकार की संक्रमित बीमारियों का अंत भी करती है। इस कर्मभूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है, जिस प्रकार घने तिमिर अर्थात्‌ अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।

जिस व्यक्ति को बार-बार कर्म करने पर भी सफलता न मिलती हो, उचित आचार-विचार के बाद भी रोग पीछा न छोड़ते हो, अविद्या, दरिद्रता, (धनहीनता) प्रयासों के बाद भी आक्रांत करती हो या किसी नशीले पदार्थ भाँग, अफीम, धतूरे का विष व सर्प, बिच्छू आदि का विष जीवन को तबाह कर रहा हो। मारण-मोहन अभिचार के प्रयोग अर्थात्‌ (मंत्र-यंत्र), कुल देवी-देवता, डाकिनी-शाकिनी, ग्रह, भूत-प्रेत बाधा, राक्षस-ब्रह्मराक्षस आदि से जीना दुभर हो गया हो।

चोर, लुटेरे, अग्नि, जल, शत्रु भय उत्पन्न कर रहे हों या स्त्री, पुत्र, बाँधव, राजा आदि अनीतिपूर्ण तरीकों से उसे देश या राज्य से बाहर कर दिए हों, सारा धन राज्यादि हड़प लिए हो। उसे दृढ़ निश्चय होकर विश्वासपूर्वक माँ भगवती की शरण में जाना चाहिए। स्वयं व वैदिक मंत्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण की सहायता से माँ भगवती देवी की आराधना तन-मन-धन से करना चाहिए।

नवरात्रि में माँ भगवती की आराधना अनेक साधकों ने बताई है। किंतु सबसे प्रामाणिक व श्रेष्ठ आधार 'दुर्गा सप्तशती' है। जिसमें सात सौ श्लोकों के द्वारा भगवती दुर्गा की अर्चना-वंदना की गई है। नवरात्रि में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दुर्गा सप्तशती के श्लोकों द्वारा माँ-दुर्गा देवी की पूजा, नियमित शुद्वता व पवित्रता से की या कराई जाएँ तो निश्चित रूप से माँ प्रसन्न होकर इष्ट फल प्रदान करती हैं।

इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। कलश स्थापना- राहु काल, यमघंट काल में नहीं करना चाहिए। इस पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजा, सुन्दर सर्वतोभद्र मंडल, स्वास्तिक, नवग्रहादि, ओंकार आदि की स्थापना विधवत शास्त्रोक्त विधि से करने या कराने तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आह्वान उनके 'नाम मंत्रो' द्वारा कर षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायिनी है।

ज्योति जो साक्षात्‌ शक्ति का प्रतिरूप है उसे अखंड ज्योति के रूप में शुद्ध देशी घी (गाय का घी हो तो सर्वोत्तम है) से प्रज्ज्वलित करना चाहिए। इस अखंड ज्योति को सर्वतोभद्र मंडल के अग्निकोण में स्थापित करना चाहिए। ज्योति से ही आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं। अखंड ज्योति का विशेष महत्व है जो जीवन के हर रास्ते को सुखद व प्रकाशमय बना देती है।

नवरात्रि में व्रत का विधान भी है जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों तक व्रत रखा जा सकता है। इस पर्व में सभी स्वस्थ व्यक्तियों को श्रद्धानुसार व्रत रखना चाहिए। व्रत में शुद्ध शाकाहारी व्यंजनों का ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वसाधारण व्रती व्यक्तियों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक व माँसाहारी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। व्रत में फलाहार अति उत्तम तथा श्रेष्ठ माना गया है।


नवरात्रि के व्रत का पारण (व्रत खोलना) दशमी में करना अच्छा माना गया है, यदि नवमी की वृद्धि हो तो पहली नवमी को उपवास करने के पश्चात्‌ दूसरे 10वें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों में मिलता है। नौ कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा व सामर्थ्य अनुसार भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत शुभ व श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार भक्त अपनी शक्ति, धन, ऐश्वर्य व समृद्धि बढ़ाने, दुखों से छुटकारा पाने हेतु सर्वशक्ति रूपा माँ दुर्गा की पूजा-अर्चना कर जीवन को सफल बना सकते हैं ।

नवरात्रि में अपेक्षित नियमः पवित्रता, संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशिष्ट महत्व है। धू्म्रपान, माँस, मंदिरा, झूठ, क्रोध, लोभ से बचें। पूजन के पूर्व जौ बोने का विशेष फल होता है। पाठ करते समय बीच में बोलना या फिर बंद करना अच्छा नहीं है, ऐसा करना ही पड़े तो पाठ का आरम्भ पुनः करें। पाठ मध्यम स्वर व सुस्पष्ट, शुद्ध चित्त होकर करें। पाठ संख्या का दशांश हवनादि करने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

दूर्वा (हरी घास) माँ को नहीं चढ़ाई जाती है। नवरात्रि में पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों का व्रत अपनी सामर्थ्य व क्षमता के अनुसार रखा जा सकता है।

Sunday, March 27, 2011

नव संवत्सर - 2068 , 04 अप्रैल से



भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। देश में मास की गणना दो प्रकार से की होती है- अमावस्या से अमावस्या तथा पूर्णिमा से पूर्णिमा तक। चैत्र शुक्ल रामनवमी से वर्ष आरम्भ होता है, जिसमें एक वर्ष की अवधि को संवत, संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर आदि नामों से अभिहित किया जाता है। ग्रन्थों में विभिन्न समय में चले संवत का उल्लेख वर्णित है, जिसमें युधिष्ठिर संवत, कलि संवत जिसमें कलि का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद विक्रमी संवत का प्रारम्भ हुआ जो सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। इस दिन नवरात्र का प्रारम्भ, सृष्टि आरम्भ दिन, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक, शकारि विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत का शुभारम्भ व आर्य समाज की स्थापना व झूले लाल का जन्म दिन हुआ।
हिन्दी मास में चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्रि्वन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष, माघ, फाल्गुन बारह महीनें है। फाल्गुन माह में होली के पश्चात चैत्र शुक्ल एकम् से नव वर्ष में क्रिया कलाप व्यवस्थित करने का क्रम तेजी से चल रह है। शास्त्रों में वर्णित है कि
ब्रहणों दितीय पराद्र्वे, श्वेतवाराह कल्पे वैवस्त
मनवन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे।
अर्थात ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध के श्वेतवाराहकल्प के वैवस्त मन्वन्तर के 28 वे कलियुग के प्रथम चतुर्थास भाग में यही हमारी परम्परा प्राप्त काल गणना एक कल्प है। एक कल्प में एक हजार बार सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग व्यतीत हुआ करते है, जिसमें एक बार के चार युगों की वर्ष संख्या 43 लाख 20 हजार है। मानव के जातीय इतिहास में एक कल्प को चौदह मन्वन्तरों में विभक्त किया जाता है। जानकारों के अनुसार अब तक छह मन्वन्तर बीत चुके है 28 वीं बार तीन युग बीत कर चौथा कलियुग चल रहा है। जिसके संवत 2067 में 5113 वर्ष बीत चुके है। सृष्टि आरम्भ से अब तक 195588510 वर्ष बीत चुके है। चार अप्रैल को सृष्टि संवत 1955885113 विक्रमी संवत 2068 का प्रारम्भ हो रहा है।
विडम्बना है कि भारतीय संवत को भुलाने का उपक्रम तेजी से चल रहा है। लोग विक्रमी संवत भूल कर पाश्चात्य ईसवी सन का दैनिक दिनचर्या क्रिया कलापों में रट्टा लगाया जाता है। सारे क्रिया कलाप भारतीय पद्धति से करने के बाद भी आधुनिकता में स्थिति को स्वीकारते नहीं। फिर भी चैत्र शुक्ल एकम् नवरात्र से प्रारम्भ होने वाले भारतीय नूतन संवत्सर के प्रारम्भ में एक दूसरे को बधाई देकर शक्ति आराधना के साथ मंगल की कामना करने वालों की बहुलता आज भी है। वे आज भी प्रेरणास्रोत्र नव संवत्सर पर संकल्प लेकर भारतीय जीवन पद्धति व संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। वर्तमान में राष्ट्र के सभी कर्णधार इक्कीसवी सदी की बात करते है जो ईसा संवत से सोचते है, जबकि हमारे पूर्वज बावनवी शताब्दी के पहले से मौजूद है।



Sunday, March 6, 2011

होली : धर्म , आध्यात्म और रंग साथ साथ


जानिए होली को उसके समूचे स्वरूप में 


- आशुतोष मिश्र 

होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।

इतिहास

होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।


राधा-श्याम गोप और गोपियो की होली

इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है । शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।

 होली की कहानियाँ


भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था ।

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।


होलिका दहन

होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।


सार्वजनिक होली मिलन

होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

 देश विदेश की होली

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया , जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

साहित्य में होली

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर , जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

संगीत में होली


भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।
आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं। रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं। होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।

Thursday, March 3, 2011

Wednesday, March 2, 2011

द्वादश ज्योतिर्लिंग


द्वादस ज्योतिर्लिंग


सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्री शैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम् ॥ केदारे हिगवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् । वाराणस्यांच विश्वेशं त्र्यम्बंक गौतमी तटे ॥ ...


वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने । सेतुबन्धे च रामेशं घृष्णेशंच शिवालये ॥ एतानि ज्योतिर्लिंगानि प्रातरुत्थाय य: पठेत् । जन्मान्तर कृत पापं स्मरणेन विनश्यति ॥

ॐ नमः शिवाय … सुनिए और गाईये ॐ नमः शिवाय …।

Tuesday, February 22, 2011

महाशिवरात्रि



देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने सर्वथा उचित समय है महाशिवरात्रि , जो वर्ष 2011में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी , बुधवार 02 मार्च को मनायी जायेगी । कुछ लोग उदया तिथि से दूसरे दिन याने 03मार्च को भी यह पर्व मनायेंगे । उत्तम होगा 02मार्च को यह पर्व मनाना , क्योंकि इसमें प्रदोष भी (रात्रि का प्रारम्भ) और निशीथ(अर्धरात्रि) की चतुर्दशी है जो शास्त्रसम्मत और ग्राह्य होती है । अर्ध रात्रि की पूजा का विधान स्कन्दपुराण में बताया गया है । फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान् शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष,जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। इस दिन शिवभक्त, शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते, पूजन करते, उपवास करते तथा रात्रि को जागरण करते हैं। शिवलिंग पर बेल-पत्र चढ़ाना, उपवास तथा रात्रि जागरण करना एक विशेष कर्म की ओर इशारा करता है। इस दिन शिव की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता
है। यहां ‘रात्रिज् शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञान सागर है जो मानव मात्र को सत्य ज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं।ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है।

विधि

इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है। अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है।रात्रि को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है। महाशिवरात्रि भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है। यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है। इसके करने से सब पापों का नाश हो जाता है। हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है। निरीह जीवों के प्रति दया भाव उपज जाता है। ईशान संहिता में इसकी महत्ता का उल्लेख इस प्रकारकिया गया है-

॥शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं॥


विशेष

चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है।ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया हैं। शिव का अर्थ है कल्याण। शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। अब मन: कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। जिससे कष्टों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अत: चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का अश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अत: प्राय: ज्योतिषी शिवरात्रि
को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश व  पुन:स्थापन के बीच की कड़ी है। प्रलय यानी कष्ट, पुन:स्थापन यानी सुख। अत: ज्योतिष में शिव को सुखों का आधार मान कर महाशिवरात्रि पर अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने की महत्ता कही गई है।

कारोबार वृद्धि के लिए

महाशिवरात्रि के सिद्ध मुहर्त में पारद शिवलिंग को प्राण प्रतिष्ठित करवाकर स्थापित करने से व्यवसाय में वृद्धि व नौकरी में तरक्की मिलती है।

बाधा नाश के लिए

शिवरात्रि के प्रदोष काल में स्फटिक शिवलिंग को शुद्ध गंगा जल, दूध, दही, घी, शहद व शक्कर से स्नान करवाकर धूप-दीप जलाकर निम्न मंत्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का शमन होता है। ॥ॐ तुत्पुरूषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात्॥

बीमारी से छुटकारे के लिए

शिव मंदिर में लिंग पूजन कर दस हज़ार मंत्रों का जाप करने से प्राण रक्षा होती है। महामृत्युंजय मंत्र का जाप रुद्राक्ष की माला पर करें।
शत्रु नाश के लिए

शिवरात्रि को रूद्राष्टक का पाठ यथासंभव करने से शत्रुओं से मुक्ति मिलती है। मुक़दमे में जीत व समस्त सुखों की प्राप्ति होती है।

मोक्ष के लिए

शिवरात्रि को एक मुखी रूद्राक्ष को गंगाजल से स्नान करवाकर धूप-दीप दिखा कर तख्ते पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर स्थापित करें। शिव रूप रूद्राक्ष के सामने बैठ कर सवा लाख मंत्र जप का संकल्प लेकर जाप आरंभ करें। जप शिवरात्रि के बाद भी जारी रखें। ॐ नम: शिवाय। शिवरात्रि पर सच्चा उपवास यही है कि हम परमात्मा शिव से बुद्घि योग लगाकर उनके समीप रहे। उपवास का अर्थ ही है उपवास अर्थात समीप रहना। जागरण का सच्च अर्थ भी काम, क्रोध आदि पांच विकारों के वशीभूत होकर अज्ञान रूपी कुम्भकरण की निद्रा मे सो जाने से स्वयं को सदा बचाए रखना है। शिवरात्रि के पर्व पर जागरण का महत्व है ।

था

एक बार पार्वतीजी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गांव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकार को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर
ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो , शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़फ रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं , मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा । मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं,मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान् शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।