Tuesday, April 19, 2011



भाग्योत्कर्ष प्रकाशन का भगवान श्री परशुराम पर विशेषांक

Monday, April 18, 2011

श्री बजरंग बाण

संकटमोचन हनुमानाष्टक



संकटमोचन हनुमानाष्टक
बाल समय रबि भक्ष लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब छाँडि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥1॥
बालि की त्रास कपीस बसे गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो॥2॥ को नहिं.
अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥
हरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो॥3॥ को नहिं..
रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो॥
चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो॥4॥ को नहिं..
बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो॥5॥ को नहिं..
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग की फाँस सबे सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो॥6॥ को नहिं..
बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥
जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो॥7॥ को नहिं॥
काज किये बड देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥8॥ को नहिं..
दोहा :- लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

श्री बजरंग बाण




।। दोहा ।। 
निश्चय प्रेम प्रतीत ते, विनय करें सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।

जय हनुमन्त सन्त हितकारी । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ।।

जन के काज विलम्ब न कीजै । आतुर दौरि महा सुख दीजै ।।

जैसे कूदि सुन्धु वहि पारा । सुरसा बद पैठि विस्तारा ।।

आगे जाई लंकिनी रोका । मारेहु लात गई सुर लोका ।।

जाय विभीषण को सुख दीन्हा । सीता निरखि परम पद लीन्हा ।।

बाग उजारी सिन्धु महं बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा ।।

अक्षय कुमार मारि संहारा । लूम लपेट लंक को जारा ।।

लाह समान लंक जरि गई । जय जय धुनि सुरपुर मे भई ।।

अब विलम्ब केहि कारण स्वामी । कृपा करहु उन अन्तर्यामी ।।

जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता । आतुर होय दुख हरहु निपाता ।।

जै गिरिधर जै जै सुखसागर । सुर समूह समरथ भटनागर ।।

जय हनु हनु हनुमंत हठीले । बैरिहि मारु बज्र की कीले ।।

गदा बज्र लै बैरिहिं मारो । महाराज प्रभु दास उबारो ।।

ऊँ कार हुंकार महाप्रभु धावो । बज्र गदा हनु विलम्ब न लावो ।।

ऊँ हीं हीं हनुमन्त कपीसा । ऊँ हुं हुं हनु अरि उर शीशा ।।

सत्य होहु हरि शपथ पाय के । रामदूत धरु मारु जाय के ।।

जय जय जय हनुमन्त अगाधा । दुःख पावत जन केहि अपराधा ।।

पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा ।।

वन उपवन, मग गिरि गृह माहीं । तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं ।।

पांय परों कर जोरि मनावौं । यहि अवसर अब केहि गोहरावौं ।।

जय अंजनि कुमार बलवन्ता । शंकर सुवन वीर हनुमन्ता ।।

बदन कराल काल कुल घालक । राम सहाय सदा प्रति पालक ।।

भूत प्रेत पिशाच निशाचर । अग्नि बेताल काल मारी मर ।।

इन्हें मारु तोहिं शपथ राम की । राखु नाथ मरजाद नाम की ।।

जनकसुता हरि दास कहावौ । ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।

जय जय जय धुनि होत अकाशा । सुमिरत होत दुसह दुःख नाशा ।।

चरण शरण कर जोरि मनावौ । यहि अवसर अब केहि गौहरावौं ।।

उठु उठु उठु चलु राम दुहाई । पांय परों कर जोरि मनाई ।।

ऊं चं चं चं चपल चलंता । ऊँ हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता ।।

ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल । ऊँ सं सं सहमि पराने खल दल ।।

अपने जन को तुरत उबारो । सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।

यह बजरंग बाण जेहि मारै । ताहि कहो फिर कौन उबारै ।।

पाठ करै बजरंग बाण की । हनुमत रक्षा करैं प्राम की ।।

यह बजरंग बाण जो जापै । ताते भूत प्रेत सब कांपै ।।

धूप देय अरु जपै हमेशा । ताके तन नहिं रहै कलेशा ।।


।। दोहा ।।
प्रेम प्रतीतहि कपि भजै, सदा धरैं उर ध्यान ।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्घ करैं हनुमान ।।




श्री हनुमान चालिसा




श्री हनुमान चालिसा

दोहा :

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई :

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन॥
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना॥
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै॥
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥

दोहा : 
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥

Wednesday, April 13, 2011

" वेद और पुराण - नित्यता में प्रमाण "



वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।


स्थूणा-निखनन-न्याय से वेद और पुराण की नित्यता के प्रतिपादक कुछ वचन दिये जा रहे हैं -
1 - वेद … ब्रह्मरूप
वस्तुत: वेद और पुराण ब्रह्म के स्वरुप हैं! स्वयं वेद ने अपने को ब्रह्मस्वरुप बतलाया है!
ब्रह्म स्वयम्भू । [वै. आ.]
पुराण ने इसी बात की दुहराया है -
वेद: नारायण: स्वयम  [ बृ. ना. पु. ४/१७]
ब्रह्म का स्वरुप साद-रूप, चिद-रूप और आनंदरूप होता है ।
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म [ बृहद. ३/९/२८]
चित का अर्थ होता है ज्ञान । इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सैट-स्वरुप, नित्य आनंद-रूप है, वैसे ही नित्य ज्ञान-रूप भी है । ज्ञान में शब्द के अनुवेध का होना आवश्यक रहता है…
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [वाक्यदीय]
नित्य-ज्ञान के लिये नित्य-शब्द का ही अनुवेध होना चाहिये । इस तरह नित्य-शब्द, नित्य-अर्थ, नित्य-संबध वाले वेद ब्रह्मस्वरूप सिद्ध हो जाते हैं ।
२ - पुराण… ब्रह्मस्वरूप…
वेद ने पुराण को अपने समान नित्य माना है । वह समता निम्नलिखित मन्त्र से व्यक्त होती है…
ऋच: ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [ अथर्व. ११/७/२४]
स्वयं पुराण ने अपने को ब्रह्म-स्वरुप माना है । पुराण वस्तुत: एक ही है । इसके अठारह पुराण कहे जाते हैं । ये अठारहों अवश्यक के रूप में हैं । अवश्यवी से अवश्यव भिन्न नहीं होता । पद्मपुराण ने ब्रह्म को पुराणरूप बतलाते हुए कहा है कि ब्रह्म अनेक रूपों में अवतरित होता है । उसका एक रूप पुराण भी है ।
एकं पुराणं रूपं वै ! [प. पु. स्व. खं ६२/२]
यह भी बताया है कि कौन पुराण कौन-सा अवश्व है, जैसे …
1 - ब्रह्मपुराण - भगवान का मस्तक, 2 - पद्मपुराण - हृदय, 3 - विष्णुपुराण - दाहिनी भुजा, 4 - शिवपुराण - बायीं भुजा, 5 - भागवतपुराण - ऊरू - युगल, 6 - नारदीयपुराण - नाभि, 7 - मार्कंडेयपुराण - दाहिना चरण, 8 - अग्निपुराण - बायाँ चरण, 9 - भविष्यपुराण - दाहिना घुटना, 10 - ब्रह्नवैर्तपुराण - बायाँ घुटना, 11 - लिंगपुराण - दाहिनी घुट्ठी, 12 - वराहपुराण - बायीं घुट्ठी, 13 - स्कन्दपुराण - रोयें (रोम),  14 - वामनपुराण - त्वचा,  15 - कूर्मपुराण - पीठ,  16 - मत्स्यपुराण - मेदा, 17 - गरुड़पुराण - मज्जा और 18 - ब्रह्माण्डपुराण - अस्थि ।
इस तरह वेद और पुराण जब ब्रह्मरूप हैं, तब इन्हें अनित्य कहना स्वत: बाधित है । महाप्रलय में जब ब्रह्म का सन्देश और आनंदांश विद्यामान रहते हैं, तब उसके चिदंश वेद और पुराण हैं । महाप्रलय के बाद भौतिक सृष्टि के निर्माण के लिये ब्रह्म ब्रह्मा को प्रकट करता है और जैसे-जैसे ब्रह्मा की बुद्धि का विकास होता जाता है तथा तपस्या का सहयोग मिलता जाता है, वैसे पहले ब्रह्मरूप पुराण का स्मरण होता है और पीछे वेद का प्रकाट्य होता है ।
वेदों से सृष्टि -
जब तक ब्रह्मा के पास वेद नहीं पहुंचे थे, तब तक वे सृष्टि और इसके निर्माण के विषय से अनभिज्ञ थे! पुराण और वेदों की प्राप्ति के बाद उनकी सारी दुविधाएं मिट गयीं! पश्चात इन्हीं की सहायता से भौतिक सृष्टि की रचना में समर्थ हुए! मनु ने लिखा है -
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथकसंस्थाश्च निर्ममे ॥ [मनु. १/२१]

वेद, स्मरणातीत अतीत से परम ज्ञान को व्यक्त करनेवाली देववाणी के ग्रंथ तथा हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति में जो कुछ भी उच्चतम् तथा गम्भीरतम् है, उसके आदि ड्डोत माने जाते हैं। इतर सभ्यता, संस्कृति और सम्प्रदाय की कोई भी कृति इसके समकक्ष नहीं ठहरती। हिंदू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साहित्यादि के बीज इसके अन्दर समाहित हैं, आज भी उक्त क्षेत्रें के लिये यह उपजीव्य है। इस तथ्य को भारत के ही नहीं बल्कि दूसरे देशों के कई विद्वान् भी प्रकट कर चुके हैं।
वेदों की रचना कब हुई? हिंदू धर्म में वेदों को ‘अपौरुषेय’ कहा गया है अर्थात् जिसकी रचना किसी पुरुष-विशेष द्वारा नहीं हुई। इसका तात्पर्य यह है कि वैदिक ट्टषि वेद-मंत्रें के व्यक्तिगत रचयिता नहीं थे, बल्कि वे वेद-मंत्रें के ‘द्रष्टा’ थे। यास्कराचार्य ने भी स्पष्ट लिखा है- ‘ट्टषयों मंत्रद्रष्टारा:। ट्टषि दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यव: । तद् स्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यामर्षत्।’ (निरुक्त, 2.11) अर्थात्, औपमन्यव आचार्य का भी यही मत है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति आदि विषयक मंत्रें के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करनेवाले को ही ‘ट्टषि’ के नाम से पुकारा जाता है। तपस्या या धयान करते हुए जो इन्हें स्वयंभू नित्यवेद के अर्थ का ज्ञान हुआ, इसलिए वे ‘ट्टषि’ कहलाए और वेदमंत्रें का रहस्य-सहित अर्थदर्शन ही उनका ट्टषित्व है। तैत्तिरीय आरण्यक की व्याख्या में भट्ट भास्कर ने लिखा है ‘अथ नम ट्टषिभ्य मंत्रकृदिभ्यो द्रष्टुभ्य:। दर्शनमेव कर्तव्यम्।’ (मै. स., भाग 3) अर्थात्, ट्टषियों का मंत्रद्रष्टा होना ही उनका मंत्रकर्तृत्व है। मनुस्मृति की व्याख्या में कुलार्क भट्ट ने लिखा है ‘ब्रह्माद्या ट्टषिपरियन्ता स्मारका:, न कारका:।’ अर्थात् ब्रह्मा से लेकर आज तक सभी ट्टषि वेद-मंत्रें को स्मरण रखनेवाले व पढ़ने-पढ़ानेवाले रहे हैं; कोई भी उनका कर्ता, लेखक या रचयिता नहीं है।

श्री हनुमान जयंती



प्रत्येक मास की पूर्णिमा को चन्द्र देव के लिये जो व्रत किया जाता है, वह पूर्णिमा व्रत कहलाता है. चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि के दिन राम भक्त हनुमान जी की जयंती होने के कारण, यह पूर्णिमा अन्य सभी पूर्णिमाओं से अधिक शुभ मानी गई है। 18 अप्रैल 2011 में श्री हनुमान जी का जन्म दिवस मनाया जायेगा। इसके अतिरिक्त जब पूर्णिमा तिथि के दिन चित्रा नक्षत्र हों, तो तरह-तरह की वस्तुओं को दान करने का विधान है। हनुमान जी के भक्तों को यह एक अच्छा अवसर मिला है पुण्य अर्जित करने - हनुमत भक्ति करने का बधाइयाँ - शुभकामनाएं ।
हिन्दू पंचांग के अनुसार हनुमान जयंती प्रतिवर्ष चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है।मान्यता है कि इसी पावन दिवस को भगवान राम की सेवा करने के उद्येश्य से भगवान शंकर के ग्यारहवें रूद्र ने वानरराज केसरी और अंजना के घर पुत्र रूप में जन्म लिया था। यह त्यौहार पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा व उल्लास के साथ मनाई जाती है. भक्तों की मन्नत पूर्ण करनेवाले पवनपुत्र हनुमान के जन्मोत्सव पर इनकी पूजा का बड़ा महातम्य होता है। आस्थावान भक्तों का मानना है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक केसरीनंदन की पूजा करता है तो प्रभु उसके सभी अनिष्टों को दूर कर देते हैं और उसे सब प्रकार से सुख, समृद्धि और एश्वर्य प्रदान करते हैं। इस दिन हनुमानजी की पूजा में तेल और लाल सिंदूर चढ़ाने का विधान है। हनुमान जयंती पर कई जगह श्रद्धालुओं द्वारा झांकियां निकाली जाती है, जिसमें उनके जीवन चरित्र का नाटकीय प्रारूप प्रस्तुत किया जाता है। यदि कोई इस दिन हनुमानजी की पूजा करता है तो वह शनि के प्रकोप से बचा रहता है । जय हनुमान कृपा निधान , कीजिये कल्याण ॥

Tuesday, April 12, 2011

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी...





भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महकारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
वोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।

Sunday, April 10, 2011

आज है कुलदेवी की पूजा का विशेष महत्व

चंद्रिका देवी जी  .  बक्सर ,उत्तर प्रदेश       
     चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते है क्योंकि यह नवरात्र हिन्दू कैलेण्डर के प्रथम दिन से शुरू होती है। इसलिए इस नवरात्र को बड़े नवरात्र भी कहा जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में माता के पूजन का विशेष महत्व माना गया है।दूर्गा सप्तशती के अनुसार माता ने ऐसा आर्र्शीवाद दिया था कि जो भी अष्टमी और नवमी पर मेरी महापूजा करेगा। उसके कुल में हमेशा धनधान्य  और समृद्धि के साथ मैं उसके कुल की स्वयं रक्षा करूंगी। ऐसी मान्यता है कि हर कुल की एक देवी होती हैं और कहा जाता है कि कुल देवी पूरे कुल की रक्षा करती है। नवरात्र के नौ दिनों में अष्टमी और नवमी को माता के पूजन का विशेष महत्व है। इसलिए कुल देवी का पूजन भी इन दो तिथियों को ही किया जाता है। कहते हैं कि चैत्र नवरात्र में कुलदेवी का पूजन इसीलिए किया जाता है ताकि पूरे साल कुल में हर्षोउल्लास और खुशी का माहौल रहे और कुल में जिस भी बच्चे का जन्म हो वह अपने कुल का नाम रोशन करे। इसीलिए हिन्दू समाज की लगभग हर जाति में नवरात्र में अधिकांशत: कुलदेवी का विशेष मन्त्र जप व अनुष्ठान किया जाता है।

Sunday, April 3, 2011

नवरा्त्रि पूजन - उपवास विधान


ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥

देवी का आवाहान, स्थापन और विसर्जन – ये तीनो प्रातःकालमें होते हैं । यदि नवरात्रपर्यन्त व्रत रखनेकी सामर्थ्य न हो तो (१) प्रतिपदासे सप्तमीपर्यन्त ‘अप्तरात्र’ (२) पंचमीको एकभुक्त, षष्ठीको नक्तव्रत, सप्तमी अयाचित, अष्टमीको उपवास और नवमीके पारणसे ‘पंचरात्र’ (३) सप्तमी, अष्टमी और नवमीके एकभुक्त व्रतसे ‘त्रिरात्र’ (४) आरम्भ और समाप्तिके दो व्रतोंसे ‘युग्मरात्र’ और (५) आरम्भ या समाप्तिके एक व्रतसे ‘एकरात्र’ के रुपमें जो भी किये जायँ, उन्हींसे अभीष्ट की सिद्धि - प्राप्ति होती है ।

देवी के नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीका पूजन तथा सप्तशतीका पाठ मुख्य है । यदि पाठ करना हो तो देवतुल्य पुस्तकका पूजन करके १,३,५ आदि विषम संख्याके पाठ करने चाहिये ।

देवीव्रतोंमें ‘कुमारीपूजन’ परमावश्यक माना गया है । यदि सामर्थ्य हो तो नवरात्रपर्यन्त और न हो तो समाप्तिके दिन कुमारीके चरण धोकर उसकी गन्ध-पुष्पादिसे पूजा करके मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये। दस वर्ष तक की कन्या का ही पूजन करने का विधान है ।