Wednesday, April 13, 2011

" वेद और पुराण - नित्यता में प्रमाण "



वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।


स्थूणा-निखनन-न्याय से वेद और पुराण की नित्यता के प्रतिपादक कुछ वचन दिये जा रहे हैं -
1 - वेद … ब्रह्मरूप
वस्तुत: वेद और पुराण ब्रह्म के स्वरुप हैं! स्वयं वेद ने अपने को ब्रह्मस्वरुप बतलाया है!
ब्रह्म स्वयम्भू । [वै. आ.]
पुराण ने इसी बात की दुहराया है -
वेद: नारायण: स्वयम  [ बृ. ना. पु. ४/१७]
ब्रह्म का स्वरुप साद-रूप, चिद-रूप और आनंदरूप होता है ।
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म [ बृहद. ३/९/२८]
चित का अर्थ होता है ज्ञान । इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सैट-स्वरुप, नित्य आनंद-रूप है, वैसे ही नित्य ज्ञान-रूप भी है । ज्ञान में शब्द के अनुवेध का होना आवश्यक रहता है…
अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [वाक्यदीय]
नित्य-ज्ञान के लिये नित्य-शब्द का ही अनुवेध होना चाहिये । इस तरह नित्य-शब्द, नित्य-अर्थ, नित्य-संबध वाले वेद ब्रह्मस्वरूप सिद्ध हो जाते हैं ।
२ - पुराण… ब्रह्मस्वरूप…
वेद ने पुराण को अपने समान नित्य माना है । वह समता निम्नलिखित मन्त्र से व्यक्त होती है…
ऋच: ज्ञानं सर्वें शब्देन भाषते । [ अथर्व. ११/७/२४]
स्वयं पुराण ने अपने को ब्रह्म-स्वरुप माना है । पुराण वस्तुत: एक ही है । इसके अठारह पुराण कहे जाते हैं । ये अठारहों अवश्यक के रूप में हैं । अवश्यवी से अवश्यव भिन्न नहीं होता । पद्मपुराण ने ब्रह्म को पुराणरूप बतलाते हुए कहा है कि ब्रह्म अनेक रूपों में अवतरित होता है । उसका एक रूप पुराण भी है ।
एकं पुराणं रूपं वै ! [प. पु. स्व. खं ६२/२]
यह भी बताया है कि कौन पुराण कौन-सा अवश्व है, जैसे …
1 - ब्रह्मपुराण - भगवान का मस्तक, 2 - पद्मपुराण - हृदय, 3 - विष्णुपुराण - दाहिनी भुजा, 4 - शिवपुराण - बायीं भुजा, 5 - भागवतपुराण - ऊरू - युगल, 6 - नारदीयपुराण - नाभि, 7 - मार्कंडेयपुराण - दाहिना चरण, 8 - अग्निपुराण - बायाँ चरण, 9 - भविष्यपुराण - दाहिना घुटना, 10 - ब्रह्नवैर्तपुराण - बायाँ घुटना, 11 - लिंगपुराण - दाहिनी घुट्ठी, 12 - वराहपुराण - बायीं घुट्ठी, 13 - स्कन्दपुराण - रोयें (रोम),  14 - वामनपुराण - त्वचा,  15 - कूर्मपुराण - पीठ,  16 - मत्स्यपुराण - मेदा, 17 - गरुड़पुराण - मज्जा और 18 - ब्रह्माण्डपुराण - अस्थि ।
इस तरह वेद और पुराण जब ब्रह्मरूप हैं, तब इन्हें अनित्य कहना स्वत: बाधित है । महाप्रलय में जब ब्रह्म का सन्देश और आनंदांश विद्यामान रहते हैं, तब उसके चिदंश वेद और पुराण हैं । महाप्रलय के बाद भौतिक सृष्टि के निर्माण के लिये ब्रह्म ब्रह्मा को प्रकट करता है और जैसे-जैसे ब्रह्मा की बुद्धि का विकास होता जाता है तथा तपस्या का सहयोग मिलता जाता है, वैसे पहले ब्रह्मरूप पुराण का स्मरण होता है और पीछे वेद का प्रकाट्य होता है ।
वेदों से सृष्टि -
जब तक ब्रह्मा के पास वेद नहीं पहुंचे थे, तब तक वे सृष्टि और इसके निर्माण के विषय से अनभिज्ञ थे! पुराण और वेदों की प्राप्ति के बाद उनकी सारी दुविधाएं मिट गयीं! पश्चात इन्हीं की सहायता से भौतिक सृष्टि की रचना में समर्थ हुए! मनु ने लिखा है -
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथकसंस्थाश्च निर्ममे ॥ [मनु. १/२१]

वेद, स्मरणातीत अतीत से परम ज्ञान को व्यक्त करनेवाली देववाणी के ग्रंथ तथा हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति में जो कुछ भी उच्चतम् तथा गम्भीरतम् है, उसके आदि ड्डोत माने जाते हैं। इतर सभ्यता, संस्कृति और सम्प्रदाय की कोई भी कृति इसके समकक्ष नहीं ठहरती। हिंदू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साहित्यादि के बीज इसके अन्दर समाहित हैं, आज भी उक्त क्षेत्रें के लिये यह उपजीव्य है। इस तथ्य को भारत के ही नहीं बल्कि दूसरे देशों के कई विद्वान् भी प्रकट कर चुके हैं।
वेदों की रचना कब हुई? हिंदू धर्म में वेदों को ‘अपौरुषेय’ कहा गया है अर्थात् जिसकी रचना किसी पुरुष-विशेष द्वारा नहीं हुई। इसका तात्पर्य यह है कि वैदिक ट्टषि वेद-मंत्रें के व्यक्तिगत रचयिता नहीं थे, बल्कि वे वेद-मंत्रें के ‘द्रष्टा’ थे। यास्कराचार्य ने भी स्पष्ट लिखा है- ‘ट्टषयों मंत्रद्रष्टारा:। ट्टषि दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यव: । तद् स्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भवभ्यामर्षत्।’ (निरुक्त, 2.11) अर्थात्, औपमन्यव आचार्य का भी यही मत है कि वेदों में प्रयुक्त स्तुति आदि विषयक मंत्रें के वास्तविक अर्थ का साक्षात्कार करनेवाले को ही ‘ट्टषि’ के नाम से पुकारा जाता है। तपस्या या धयान करते हुए जो इन्हें स्वयंभू नित्यवेद के अर्थ का ज्ञान हुआ, इसलिए वे ‘ट्टषि’ कहलाए और वेदमंत्रें का रहस्य-सहित अर्थदर्शन ही उनका ट्टषित्व है। तैत्तिरीय आरण्यक की व्याख्या में भट्ट भास्कर ने लिखा है ‘अथ नम ट्टषिभ्य मंत्रकृदिभ्यो द्रष्टुभ्य:। दर्शनमेव कर्तव्यम्।’ (मै. स., भाग 3) अर्थात्, ट्टषियों का मंत्रद्रष्टा होना ही उनका मंत्रकर्तृत्व है। मनुस्मृति की व्याख्या में कुलार्क भट्ट ने लिखा है ‘ब्रह्माद्या ट्टषिपरियन्ता स्मारका:, न कारका:।’ अर्थात् ब्रह्मा से लेकर आज तक सभी ट्टषि वेद-मंत्रें को स्मरण रखनेवाले व पढ़ने-पढ़ानेवाले रहे हैं; कोई भी उनका कर्ता, लेखक या रचयिता नहीं है।