Monday, January 31, 2011

जय श्री राम जय श्री हनुमान , सुन्दर काण्ड (स्वर - मुकेश)

वसन्त पञ्चमी - 08 फ़रवरी 2011 को



वसन्त पञ्चमी

वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा वैसे तो सम्पूर्ण भारत में  माँ सरस्वती के साधक करते हैं लेकिन पूर्वी भारत में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। प्राचीन भारत में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था।जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों मे सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है।

बसन्त पंचमी की  कथा

सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु जी की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। भगवान विष्णु जी से अनुमति लेकर ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा जी ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्माजी ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और यूँ भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा।

पर्व का महत्व

वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

फ़रवरी माह 2011 के व्रत - त्यौहार


फ़रवरी माह के व्रत - त्यौहार
1- मास शिवरात्रि व्रत
2- मौनी अमावस्या
3- स्नान दान अमावस्या
4- चन्द्रदर्शन वल्लभाचार्य जयंती
7- विनायकी चतुर्थी व्रत
8- बसंत पंचमी, सरस्वती पूजा
9- श्री शीतला षष्ठी (बंगाल)
10- रथ सप्तमी, अचला सप्तमी व्रत (पुत्र सप्तमी)
11- भीष्माष्टमी
12- महानन्दा नवमी, हरसू ब्रह्मदेव जयंती (भभुआ)
13- कुम्भ संक्रान्ति
14- जया (अजा) एकादशी व्रत, भैमी एकादशी (बंगाल)
15- भीष्म द्वादशी, तिल द्वादशी  
16- प्रदोष व्रत
17- व्रत  पूर्णिमा
18. माघी पूर्णिमा, संत रविदास जयंती, ललिता जयंती, माघ स्नान प्रारम्भ
19. शिवाजी जयंती
21. गणेश चतुर्थी
25. सीताष्टमी,कालाष्टमी
26. समर्थ गुरु रामदास जयंती
27. स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती
28. विजया एकादशी व्रत

Saturday, January 29, 2011



या ते अग्ने पर्वतस्येव धरासश्‍च‌न्ती पीपयद्देव चित्रा |
तामस्मभ्यं प्रमतिं जातवेदो वसो रास्व सुमतिं विश्‍व‌जन्याम् ||
ऋग्वेद 3|57|6

अर्थ -
या.............................जो
ते.............................तेरी
अग्ने.........................सबको ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित करनेवाले ! सबको आगे ले जानेवाले
देव...........................प्रकाशस्वरूप प्रभो !
पर्वतस्य+इव.................पर्वत की धारा के समान
असश्‍च‌न्ति...................संसक्त न होती हुई
चित्रा..........................विचित्र , अद्‍भुत
धारा..........................वेदमयी ज्ञानधारा
पीपयद्......................निरन्तर ज्ञान दान कर रही है, हे
वसो..........................सबको वसानेवाले,
जातवेदः.......................सबमें रहनेवाले, प्रत्येक पदार्थ के ज्ञाता ! सर्वज्ञ भगवन् !
असम‌भ्यम्...................हमें
ताम्..........................वह
प्रमतिम्......................उत्तम बोध देनेवाली
विश्‍व‌जन्याम्................सर्वजनहितकारिणी
सुमतिम्......................वेदरूप कल्याण-मति
रास्व.........................दो, दान करो |

Thursday, January 27, 2011

अपील : श्री सांई अंक के लिए


" भाग्योत्कर्ष " धर्म , आध्यात्म , वास्तु शास्त्र और ज्योतिष से जुड़ा नाम है जो प्रकाशन के क्षेत्र में कार्यरत है । रायपुर (छत्तीसगढ़) से भाग्योत्कर्ष का मासिक प्रकाशन होता है । हर आध्यात्मिक विषय पर भाग्योत्कर्ष का एक विशेष अंक 'वेद-पुराणों' पर आधारित होता है जो ग्लेज आर्ट पेपर प्रकाशित होता है । धार्मिक संस्थानों - आध्यात्मिक चाहत रखने वाले लोगों के हाँथों इसका वितरण धर्मावलंबियों - जिज्ञासु जनों के मध्य होता है ।
  अब तक भाग्योत्कर्ष के "अघोर" , "देवी शक्ति" , "समृद्धि" , "मंत्र शक्ति" ,  "रामसेतु" , "भगवान श्री परशुराम" , "राजिम कुंभ" , "जागरण" , "चेतना" जैसे अनेक महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए हैं ।
 सर्व विदित है कि यह विषय आज के तड़क-भड़क की दुनियाँ , ग्लेमर की दुनियाँ से अलग है लिहाजा इसका प्रकाशन कठिन ही नहीं दुष्कर होता है । प्रदेश के मुख्य मंत्री डॉ रमन सिंह इस बात को समझते थे , लेकिन यह बात उनके मातहतों को अच्छी नहीं लगी । प्रकाशन लम्बे समय से अवरुद्ध हो गया ।
भाग्योत्कर्ष ने पुनः हिम्मत जुटा कर शिरडी वाले सांई बाबा पर एक विशेष अंक के प्रकाशन की  तैयारी की है । बाबा के सक्षम भक्तों से सहयोग की अपेक्षा सहित यहाँ यह पोस्ट लगाई गई है । सहयोग केवल इतना कि इस अंक की प्रतियाँ अपनों - भक्तों के बीच वितरित करने के लिए अग्रिम क्रय कर प्रकाशन को सुलभ सुगम बनाने में मदद करें ।                                                                      - आशुतोष मिश्र / +91 94242 02729

Wednesday, January 19, 2011

शुभारंभ और आध्यात्म

नारियल फोडना और दीपप्रज्वलन, ये विधियां वास्तुशुद्धिकी यानी उद्‌घाटनकी महत्त्वपूर्ण विधियां हैं । 'उद्' का अर्थ है प्रकट करना । देवता तरंगों को प्रकट करना अथवा कार्यस्थल पर उन्हें स्थान ग्रहण करने हेतु आह्वान कर - प्रार्थना कर कार्य आरंभ करना यही है उद्‌घाटन करना । हिंदू धर्म में प्रत्येक कृति आध्यात्म शास्त्र आधारित है । किसी भी समारोह अथवा कार्य को पूर्ण करने के लिए देवताओं का आशीर्वाद उनकी अनुकम्पा आवश्यक मानी गई है । शास्त्रीय पद्धति अनुसार कार्य का शुभारंभ करने से दैविक तरंगों का कार्यस्थल पर आगमन होता है - सुरक्षा कवच का निर्माण होता है । इससे वहां अनिष्ट की आशंका नहीं रहती है । इसलिए उद्‌घाटन विधिवत्, अर्थात् अध्यात्म शास्त्र पर आधारित विधि अनुसार ही करना ही श्रेयस्कर माना जाता है । किसी भी  व्यासपीठ के कार्यक्रमों का उद्‌घाटन: परिसंवाद, साहित्य सम्मेलन, संगीत महोत्सव इत्यादि का उद्‌घाटन दीप प्रज्वलनसे किया जाता है । व्यासपीठ की स्थापना से पूर्व नारियल फोडें और उद्‌घाटन के समय दीप प्रज्वलित करें । नारियल फोडने के पीछे प्रमुख उद्देश्य है, कार्यस्थल की शुद्धि । व्यासपीठ ज्ञानदानके कार्य से संबंधित है, अर्थात् वह ज्ञानपीठ है । इसलिए वहां दीपक का विशेष महत्त्व है ।
व्यवसायिक प्रतिष्ठान इत्यादि का उद्‌घाटन दुकान, प्रतिष्ठान इत्यादि अधिकांशत: व्यावहारिक कर्मसे संबंधित होते हैं । इसलिए उनके उद्‌घाटन अंतर्गत दीप प्रज्वलन की आवश्यकता नहीं होती । इसलिए केवल नारियल फोडें । उद्‌घाटन के शुभ अवसर पर यदि कोई संत या माहत्मा की उपस्थिती हो तो यह अतिउत्तम स्थिति मानी जाती है क्योंकि संतों के अस्तित्व मात्र से ब्रह्मांड से आवश्यक देवता की सूक्ष्मतर तरंगें कार्यस्थल की ओर आकृष्ट व कार्यरत होती हैं । इससे वातावरण चैतन्यमय व शुद्ध बनता है और कार्यस्थल के चारों ओर सुरक्षा कवच की निर्मिति होती है व जीवों की सूक्ष्मदेह की शुद्धि में सहायता मिलती है ।

अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत लाभ

सोमवार के दिन त्रयोदशी प्रदोष पड़ने पर किया जाने वाला व्रत आरोग्य प्रदान करता है । सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोकामना पूर्ण होती है । जिस मास में मंगलवार के दिन का प्रदोष हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है । बुधवार के दिन प्रदोष  हो तो, उपवास करने वाले की सभी कामना की पूर्ति होती है । गुरुवार को पड़ने वाला प्रदोष शत्रुओं का विनाश  करता है । शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है । संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए । अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है ।

2011 में आने वाले प्रदोष व्रत


2011 में आने वाले प्रदोष व्रत 

  • चन्द्र मास
  • पौष कृ्ष्ण
  • पौष शुक्ल (सोमवार)
  • माघ कृ्ष्ण (सोमवार)
  • माघ शुक्ल
  • फाल्गुन कृ्ष्ण
  • फाल्गुण शुक्ल
  • चैत्र कृ्ष्ण
  • चैत्र शुक्ल
  • वैशाख कृ्ष्ण
  • वैशाख शुक्ल
  • ज्येष्ठ कृ्ष्ण (सोमवार)
  • ज्येष्ठ शुक्ल
  • आषाढ कृ्ष्ण (भौम)
  • आषाढ शुक्ल (भौम)
  • श्रावण कृ्ष्ण
  • श्रावण शुक्ल
  • भाद्रपद कृ्ष्ण
  • भाद्रपद शुक्ल
  • आश्चिन कृ्ष्ण
  • आश्चिन शुक्ल
  • कार्तिक कृ्ष्ण
  • कार्तिक शुक्ल
  • मार्गशीर्ष कृ्ष्ण
  • मार्गशीर्ष शुक्ल
  • पौष कृ्ष्ण

तिथि

  • 1 जनवरी
  • 17 जनवरी
  • 31 जनवरी
  • 16 फरवरी
  • 02 मार्च
  • 17 मार्च
  • 31 मार्च
  • 15 अप्रैल
  • 30 अप्रैल
  • 15 मई
  • 30 मई
  • 13 जून
  • 28 जून
  • 12 जुलाई
  • 28 जुलाई
  • 11 अगस्त
  • 26 अगस्त
  • 09 सितम्बर
  • 25 सितम्बर
  • 09 अक्तूबर
  • 24 अक्तूबर
  • 8 नवम्बर
  • 23 नवम्बर
  • 07 दिसम्बर
  • 22 दिसम्बर

वार

  • शनिवार
  • सोमवार
  • सोमवार
  • बुधवार
  • बुधवार
  • गुरुवार
  • गुरुवार
  • शुक्रवार
  • शनिवार
  • रविवार
  • सोमवार
  • सोमवार
  • मंगलवार
  • मंगलवार
  • गुरुवार
  • गुरुवार
  • शुक्रवार
  • शुक्रवार
  • रविवार
  • रविवार
  • सोमवार
  • मंगलवार
  • बुधवार
  • बुधवार
  • गुरुवार

Sunday, January 16, 2011

सांसारिक दुखों की भी निवृत्ति होती है प्रदोष व्रत रखने से




वैसे प्रदोष व्रत सप्ताह के किसी भी दिन पड़ सकते हैं। लेकिन, सोमवार मंगलवार और शनिवार के दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत बहुत अधिक प्रभावकारी कहे गए हैं। आमतौर पर द्वाद्वशी और त्रयोदशी की तिथि को प्रदोष तिथि कहते हैं। इन्हीं तिथियों को व्रत रखा जाता है। प्रदोष व्रत हर महीने दो बार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन पड़ता है। इन तिथियों को अगर सोमवार या मंगलवार पड़ जाए, तो उन्हें सोम प्रदोष व्रत या भौम प्रदोष व्रत भी कहते हैं। इसी श्रृंखला में शनि प्रदोष व्रत भी विशेष ग्राह्य और पूज्य माने जाते हैं । ऐसी मान्यता है कि अनेक जप, तप और नियम संयम के बावजूद अगर गृहस्थ जीवन में संकट, क्लेश आर्थिक विषमताएं पारिवारिक विद्वेष संतानहीनता या संतान की उपलब्धि के बाद भी नाना प्रकार के कष्ट विघ्न बाधाएं, रोजी-रोटी सहित सांसारिक जीवन विभीषिकाएं खत्म नहीं हो रही हैं, तो उस श्रद्धालु के लिए प्रतिमाह में पड़ने वाले प्रदोष व्रत रखना हितकर होता है। 
प्रदोष व्रत उन लोगों के लिए भी मनोकामनापूरक व्रत है, जिन्हें चन्द्रमा ग्रह से काफी पीड़ित होना पड़ रहा है। साथ ही चन्द्रमा ग्रह के अनेक उपायों में साल भर में प्रदोष व्रतों को उपवास रखना, लोहा, तिल, काली उड़द, शकरकंद, मूली, अरबी, कंबल, जूता और कोयला आदि दान करना हितकर होता है। चाहे गुरूवार हो या कोई अन्य वार, अगर प्रदोष व्रत हो, तो इसके लिए श्रद्धा पूर्वक व्रत रखकर उपरोक्त दान करेंगे तो आपके लिए शनि का प्रकोप काफी हद तक कम हो जाएगा और रोग-व्याधि, दरिद्रता, घर की अशांति, नौकरी या व्यापार में परेशानी आदि का निवारण हो जाएगा।
शनि या मंगल प्रदोष व्रत के दिन शिव मंदिर, हनुमान मंदिर, भैरव मंदिर अथवा शिव मंदिर में पूजा करना भी लाभप्रद होता है। प्रदोष व्रत का दूसरा महत्व पुत्रकामना हेतु अथवा संतान के शुभ हेतु रखने में बृहस्पतिवार का दिन विशेष महत्वपूर्ण होता है। इस दिन मीठे पकवान और फल आदि गाय के बछड़े को देने से संतानहीन दंपत्तियों के लिए भी मनोकामना पूरक होता है। लेकिन, इसके लिए लगातार 16 प्रदोष व्रत करने जरूरी होते हैं। किसी भी प्रकार की संतान बाधा में शनि प्रदोष व्रत भी सबसे उत्तम मनोकामना पूरक उपाय है।
व्रत के दिन पति-पत्नी द्वारा प्रातः स्नान के उपरांत शिव, पार्वती और गणेशजी की संयुक्त आराधना के बाद शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग मे जल चढ़ाना, पीपल पर भी जल चढ़ाकर सारे दिन निर्जल रहना होगा। सायंकाल के समय लोहे की कढ़ाही में उड़द की दाल और मोटे चावल तथा तिल आदि मिलाकर खिचड़ी खानी होगी। खिचड़ी का एक चैथाई भाग काले कुत्ते या गाय को भी देना हितकर होगा।
प्रदोष व्रत रखने से सांसारिक दुखों की भी निवृत्ति होती है। यह आवश्यक नहीं है कि हम महज चंद्रमा की दशा या संतानहीनता के दुख को टालने के लिए इस व्रत को रखें। बल्कि यह व्रत सुख संपदा युक्त जीवन शैली के अलावा हमें यश, कीर्ति, ख्याति और वैभव देने में समर्थ होता है। विशेष रूप से श्रावण भाद्रपद, कार्तिक और माघ मास में पड़ने वाले प्रदोष व्रत आज के दैहिक और भौतिक कष्टों को निवारण करने में परम सहायक होते हैं। 

Saturday, January 15, 2011

माघ मास का "सकट चौथ"

माघ मास का  "सकट चौथ"
प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष चतुर्थी यूं तो गणेश चतुर्थी कहलाती है तथा धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्रियां उस दिन व्रत एवम श्रीगणेश पूजन करती हैं। परंतु जहां तक  माघमास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का प्रश्न है, सभी महिलाएं इस व्रत को करती हैं। लोक प्रचलित भाषा में इसे सकट चौथ कहा जाता है। वैसे वक्रतुण्डी चतुर्थी , माघी चौथ अथवा तिलकुट चौथ इसी के अन्य नाम हैं। इस दिन संकट हरण श्रीगणेश जी तथा चंद्रमा का पूजन किया जाता है। यह व्रत संकटों तथा दुखों को दूर करने वाला तथा सभी इच्छाएं व मनोकामनाएं पूरी करने वाला माना जाता है।

इस दिन स्त्रियां निर्जला व्रत करती हैं। एक पटरे पर मिट्टी की डली को गणेशजी के रूप में रखकर उनकी पूजा की जाती है और कथा सुनने के बाद लोटे में भरा जल चंद्रमा को अर्ध्य देकर ही व्रत खोला जाता है। रात्रि को चंद्रमा को अर्ध्य देने के बाद ही महिलाएं भोजन करती है। सकट चौथ के दिन तिल को भूनकर गुड़ के साथ कूटकर तिलकुटा अर्थात तिलकुट का पहाड़ बनाया जाता है। कहीं-कहीं तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। उसकी पूजा करके घर का कोई बच्चा उसकी गर्दन काटता है, फिर सबको प्रसाद दिया जाता है।

तिलकुटे से ही गणेशजी का पूजन किया जाता है तथा इसका ही बायना निकालते हैं और तिलकुट को भोजन के साथ खाते भी हैं। जिस घर में लड़के की शादी या लड़का हुआ हो, उस वर्ष सकट चौथ को सवा किलो तिलों को सवा किलो शक्कर या गुड़ के साथ कूटकर इसके तेरह लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डूओं को बहू बायने के रूप में सास को देती है। कहीं-कहीं इस दिन व्रत रहने के बाद सायंकाल चंद्रमा को दूध का अर्ध्य देकर पूजा की जाती है। गौरी-गणेश की स्थापना कर उनका पूजन तथा वर्षभर उन्हें घर में रखा जाता है। तिल, ईख, गंजी, भांटा, अमरूद, गुड़, घी से चंद्रमा गणेश का भोग लगाया जाता है। यह नैवेद्य रात भर डलिया से ढककर रख दिया जाता है, जिसे 'पहार' कहते हैं। पुत्रवती माताएं पुत्र तथा पति की सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत करती हैं। उस ढके हुए 'पहार' को पुत्र ही खोलता है तथा उसे भाई-बंधुओं में बांटा जाता है।
उत्तर भारतीय लोग  लकड़ी के एक पाटे पर श्री गणेश , संकठा माँ , माँ अन्न्पूर्णा , लक्ष्मी जी सहित अन्य देवी-देवताओं का चन्दन से चित्र बना कर पूजन करते हैं , सुहाग की सामग्री , गुड़ से बने विभिन्न प्रकार के लड्डुओं का भोग अर्पित  करते हैं ।  तिल का प्रतीकात्मक  बकरा बना कर  पुजन करते हैं । यहाँ यह पूजा गोघुली बेला में की जाती है। 

Thursday, January 13, 2011

आईए जाने मकर संक्रांति के बाद बारह राशियों पर पड़ने वाला प्रभाव


इस वर्ष 2011 को 14 जनवरी  की मध्य रात्रि सूर्य देव अपनी राशि बदलकर धनु राशि से मकर में प्रवेश करेंगे । सूर्य प्रत्येक ग्रह राशियों पर परिभ्रमण करते हैं और राशियों पर अपना शुभ-अशुभ प्रभाव डालते हैं। सूर्य जब मकर राशि पर परिभ्रमण करेंगे तो  बारह राशियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा आईये जानते हैं , यहाँ राशियों पर होने वाले प्रभाव एवम उनके लिए उपाय दिए गये हैं -

मेष- आर्थिक परेशानी के साथ स्वास्थ्य संबंधी तकलीफ देता है। मित्र या रिश्तेदारी में लड़ाई करा सकता है। आ‍कस्मिक घटनाएँ होने की संभावना बनाता है। 

उपाय- ॐ घृणि सूर्याय नम: बोलकर अर्घ्य दें। 

वृषभ- मानसिक परेशानी के साथ धन हानि देता है। शत्रुओं से कष्ट दिला सकता है। शत्रु संख्या भी बढ़ा सकता है। फिजूलखर्च एवं मान-सम्मान में कभी कराता है। 

उपाय- आदित्य स्त्रोतम् का पाठ करें। माणिक धारण करें। 

मिथुन- इच्छाओं की पूर्ति कराएगा। नौकरी वालों को पदोन्नति दिलाएगा। सुख, शांति एवं समृद्धि प्रदान करेगा। पुरस्कार प्राप्त होगा। 

उपाय- ताँबे की वस्तु का दान करें। 

कर्क- बिछड़े एवं टूटे हुए साथियों को मिलवाएगा। नए संबंध बनाएगा, घर में मांगलिक कार्य होंगे। सुख-शांति प्रदान होगी। 

सुझाव- गंगाजल से स्नान करें। तीर्थ यात्रा करें। 

सिंह- मानसिक रोग में सुधार होगा। मकर का सूर्य वाहन-दुर्घटना अथवा सामान्य दुर्घटना करा सकता है। आर्थिक तंगी आएगी। 

उपाय- माणिक, कमल फूल, गुड, लाल चंदन, लाल वस्त्र, ताँबा, केसर, स्वर्ण रविवार को दान करें। 

कन्या- स्वभाव में उग्रता लाएगा। धन हानि के साथ-साथ मान-सम्मान में कमी ला सकता है। परिवार से दूरी के योग बना सकता है। 

उपाय- माणिक के साथ सोना दान करें। 

तुला- सामाजिक अथवा धार्मिक यात्रा का योग कराएगा। परंतु आर्थिक कष्‍ट के साथ परिवार से दूरी करा सकता है। 

सुझाव- आदित्य स्त्रोतम् का पाठ करें।

‍वृश्चिक- उन्नति अर्थात् सु-व्यवस्थित पद दिलाएगा। परिवार में सुख-शांति एवं सम्मान में वृद्धि कराएगा। स्वास्थ्य सुधार होगा। 

सुझाव- सूर्य का जप करें (ॐ सूर्याय नम:)। 

धनु- वैवाहिक सुख में कमी करा सकता है। घर में अशांति के साथ बीमारी के कारण आर्थिक कष्ट कराएगा। 

उपाय- लाल चंदन, ताँबा, गुड रविवार को दान करें। 

मकर- अधिकारियों से परेशानी हो सकती है। दुर्घटना के योग बनते है। मानसिक परेशानी के साथ बीमारी का भय रहेगा। 

उपाय- लाल फूल एवं कुँकू डालकर सूर्य को अर्घ्य दें।

कुंभ- शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराएगा। मानसिक आर्थिक सुख शांति प्रदान करेगा। घर में खुशियाँ आएँगी। 

सुझाव- स्नान में तीर्थ का जल मिलाएँ। 

मीन- उदर अथवा मूत्राशय संबंधी तकलीफ दे सकता है। परिवार से तालमेल में कमी करा सकता है। 

उपाय- लाल चंदन का दान करें। साथ ही आदित्य स्त्रोतम् का पाठ करें।




Monday, January 10, 2011

मकर संक्रांति अबकी बार 15 को


पौष शुक्ल दशमी शुक्रवार तदनुसार 14 जनवरी 2011 को रात्रि में 12 बजकर 31 मिनट पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर रहा है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति का पुण्य काल संक्रांति के पश्चात 16 घण्टा तक रहेगा । इस प्रकार मकर संक्रांति जन्म पुण्यकाल दूसरे दिन होना चाहिए। मकर संक्रांति जन्म पुण्यकाल पौष शुक्ला एकादशी शनिवार तद्नुसार 15 जनवरी को सायं 4 बजकर 31 मिनट तक रहेगा यानि उसी दिन मकर संक्रांति मनाई जायेगी। विशेष पुण्यकाल 15 की सुबह 08:15 तक रहेगा । दोपहर 12 बजे तक सामान्य पुण्यकाल रहेगा । इस पर्व पर छः प्रकार से तिल का प्रयोग करना लाभप्रद बताया गया है । तिल का उबटन , तिल मिले जल से स्नान , तिल से हवन , तिल का खाना , तिल मिला जल पीना और तिल का दान इस दिन अच्छा माना गया है । शुभम करोति ।

श्री हनुमान चालीसा

Wednesday, January 5, 2011

श्री विष्णु सहस्त्रनाम ( सम्पूर्ण )

कलियुग का आगमन



धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाँचों पाण्डव महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गये और वहाँ जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुये। राजा परीक्षित धर्म के अनुसार तथा ब्राह्नणों की आज्ञानुसार शासन करने लगे। उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ उन्होंने अपना विवाह किया और उस उत्तम पत्नी से उनके चार पुत्र उत्पन्न हुये। आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये।
उन्हीं दिनों धर्म ने बैल का रूप बना कर गौरूपिणी पृथ्वी से सरस्वती तट पर भेंट किया। गौरूपिणी पृथ्वी की नेत्रों से अश्रु बह रहे थे और वह श्रीहीन सी प्रतीत हो रही थी। धर्म ने पृथ्वी से पूछा - "हे देवि! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?"
पृथ्वी बोली - "हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के कारण घोर कलियुग मेरे ऊपर आ गया है। मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।"
जब धर्म और पृथ्वी ये बातें कर ही रहे थे कि मुकुटधारी शूद्र के रूप में कलियुग वहाँ आया और उन दोनों को मारने लगा।
अरे दुष्ट कलिकाल तू, देता दुःख महान।
पाण्डु पौत्र मारन चले, ले करमें धनुवान॥
राजा परीक्षित दिग्विजय करते हुये वहीं पर से गुजर रहे थे। उन्होंने मुकुटधारी शूद्र को हाथ में डण्डा लिये एक गाय और एक बैल को बुरी तरह पीटते देखा। वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था। गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी। दोनों ही भयभीत हो कर काँप रहे थे। महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे - "रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।" उनके इन वचनों को सुन कर कलियुग भय से काँपने लगा।
महाराज ने बैल से पूछा कि हे बैल तुम्हारे तीन पैर कैस टूटे गये हैं। तुम बैल हो या कोई देवता हो। हे धेनुपुत्र! तुम निर्भीकतापूर्वक अपना अपना वृतान्त मुझे बताओ। हे गौमाता! अब तुम भयमुक्त हो जाओ। मैं दुष्टों को दण्ड देता हूँ। किस दुष्ट ने मेरे राज्य में घोर पाप कर के पाण्डवों की पवित्र कीर्ति में यह कलंक लगाया है? चाहे वह पापी साक्षात् देवता ही क्यों न हो मैं उसके भी हाथ काट दूँगा। तब धर्म बोला - "हे महाराज! आपने भगवान श्रीकृष्ण के परमभक्त पाण्डवों के कुल में जन्म लिया है अतः ये वचन आप ही के योग्य हैं। हे राजन्! हम यह नहीं जानते कि संसार के जीवों को कौन क्लेश देता है। शास्त्रों में भी इसका निरूपण अनेक प्रकार से किया गया है। जो द्वैत को नहीं मानता वह दुःख का कारण अपने आप को ही स्वीकार करता हैं। कोई प्रारब्ध को ही दुःख का कारण मानता है और कोई कर्म को ही दुःख का निमित्त समझता है। कतिपय विद्वान स्वभाव को और कतिपय ईश्वर को भी दुःख का कारण मानते हैं। अतः हे राजन्! अब आप ही निश्चित कीजिये कि दुःख का कारण कौन है।"
सम्राट परीक्षित उस बैल के वचनों को सुन कर बोले - "हे वृषभ! आप अवश्य ही बैल के रूप में धर्म हैं और यह गौरूपिणी पृथ्वी माता है। आप धर्म के मर्म को भली-भाँति जानते हैं। आप किसी की चुगली नहीं कर सकते इसीलिये आप दुःख देने वाले का नाम नहीं बता रहे हैं। हे धर्म! सतयुग में आपके तप, पवित्रता, दया और सत्य चार चरण थे। त्रेता में तीन चरण रह गये, द्वापर में दो ही रह गये और अब इस दुष्ट कलियुग के कारण आपका एक ही चरण रह गया है। यह अधर्मरूपी कलियुग अपने असत्य से उस चरण को भी नष्ट करने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन से दुष्ट पापी शूद्र राजा लोग इस गौरूपिणी पृथ्वी को भोगेंगे इसी कारण से यह माता भी दुःखी हैं।"
इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी शूद्र राजवेषधारी कलियुग को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली। कलियुग ने भयभीत होकर अपने राजसी वेष को उतार कर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि कहने लगा। राजा परीक्षित बड़े शरणागत वत्सल थे, उनहोंने शरण में आये हुये कलियुग को मारना उचित न समझा और कलियुग से कहा - "हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिये मैंने तुझे प्राणदान दिया। किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।"
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुन कर कलियुग ने कातर वाणी में कहा - "हे राजन्! आपका राज्य तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर है, आपके राज्य से बाहर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर कि मैं निवास कर सकूँ। हे भूपति! आप बड़े दयालु हैं, आपने मुझे शरण दिया है। अब दया करके मेरे निवास का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध आपको करना ही होगा।"
कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा - "हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।" इस पर कलियुग बोला - "हे उत्तरानन्दन! ये चार स्थान मेरे निवास के लिये अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और भी स्थान मुझे दीजिये।" कलियुग के इस प्रकार माँगने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवा स्थान 'स्वर्ण' दिया।
कलियुग इन स्थानों के मिल जाने से प्रत्यक्षतः तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ दूर जाने के बाद अदृष्य रूप में वापस आकर राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में निवास करने लगा।

Tuesday, January 4, 2011

साल के पहले सूर्यग्रहण का राशियों पर प्रभाव



मेष : सूर्ग्रहण का असर दिखेगा लेकिन प्रभावी नहीं होगा, असर के कारण परेशानियां तो होंगी लेकिन लंबे समय तक रहेंगी, दैनिक जीवन के कार्यों में बाधाएं आएगी लेकिन खर्चा बढ़ेगा लेकिन सभी कार्य पूरे हो जायेंगे।
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वृष: शुक्र के राशि परिवर्तन से वृषभ राशि वालों के सोचे हुए सभी कार्य पूरे होंगे। वृषभ राशि के जातकों को अपने जीवनसाथी से सहयोग मिलता रहेगा। पार्टनरशीप करने वालों के कार्य बनेंगे।
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मिथुन: शुक्र का राशि परिर्वतन करना मिथुन राशि वालों के लिए खर्चा बढ़ाएगा। शत्रूओं से निपटने के लिए खर्चा होगा और ज्यादातर खर्चा दिखावे पर होगा लेकिन मानसिक परेशानियों के बाद सफलता मिलेगी।
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कर्क : शुक्र, कर्क राशि वालों के लिए विद्या और बुद्धि से संबंधित कार्यों में सफलता दिलाएगा। यह समय विद्यार्थियों के लिए अच्छा रहेगा। प्रतियोगी परिक्षाओं में सफलता मिलेगी। जो अविवाहित हैं वो विवाहित हो जायेंगे।
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सिंह: सिंह राशि वालों को वाहनों से सावधान रहना चाहिए। भूमि, मकान और स्थाई सम्पत्ती से संबंधित परेशानियां होगी और खर्चा भी बढ़ेगा। लेकिन ये सूर्ग्रहण उनके लिए लाभदायक ही है, सिंह के लिये ये प्रगति ही ले कर आयेगा।
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कन्या : कन्या राशि वालों के लिए यह समय आर्थिक तंगी वाला रहेगा लेकिन इनको प्रेम प्रसंग में सफलता मिलेगी। जीवनसाथी से प्रेम बढ़ेगा। मांगलिक कार्योँ पर खर्चा बढ़ेगा।
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तुला : तुला राशिवालों का राशि स्वामी ही शुक्र है इसलिए इनके धन में वृद्धि होगी, अच्छे निवेश के योग बनेंगे। कष्ट में कमी आएगी और सुख में वृद्धि होगी।
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वृश्चिक: वृश्चिक राशि में ही शुक्र का प्रवेश होने से इस राशि वालों का झुकाव वृषभ राशि वालों की और बढ़ेगा। वृश्चिक और वृषभ राशि राशि के प्रेमियों के संबंध और अधिक मधुर बनेंगे।
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धनु: शुक्र के वृश्चिक राशि में आ जाने से धनु राशि वालों के लिए खर्चा बढ़ेगा। स्थाई सम्पत्ती यानी भूमि एवं मकान पर खर्च होगा। यात्रा के योग बनेंगे और यात्राओं पर खर्च भी होगा।
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मकर: मकर राशि वालों के लिए शुक्र का वृश्चिक राशि में प्रवेश करना बहुत अच्छा रहेगा। भाई बंधुओं से सहयोग मिलेगा। आर्थिक लाभ मिलेगा। बुद्धि और योजनाओं से सुख और लाभ मिलेगा।
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कुंभ : भूमि और स्थायी संपत्ती से लाभ मिलेगा। जब तक शुक्र वृश्चिक राशि में रहेगा तब तक आपके सभी निर्णय सही होंगे। बेरोजगारों को रोजगार के अवसर मिलेंगे।
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मीन: मीन राशि वालों को सम्मान यश और प्रतिष्ठा मिलेगी। धार्मिक और मांगलिक कार्यों में खर्चा होगा। लेकिन भाग्य की मेहरबानी के आगे जितना खर्चा होगा उससे कहीं ज्यादा लाभ की संभावना है।

Monday, January 3, 2011

मनुष्य जीवन का रहस्य



भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (गीता १४/३)

मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार यानि प्रकृति आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के द्वारा निर्मित होता है।

सबसे पहले हमें बुद्धि तत्व के द्वारा अहंकार तत्व को जानना होता है, (अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं। शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता रहता है तो वह मिथ्या अहंकार (अवास्तविक स्वरूप) से ग्रसित रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।

जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में रहता है तो वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत अहंकार (वास्तविक स्वरूप) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता रहता है।

श्री कृष्ण ही केवल एक मात्र पूर्ण चेतन स्वरूप भगवान हैं वह साकार रूप मैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सभी ज़ड़ और चेतन रूप में दिखाई देने वाली और न दिखाई देने वाली सभी वस्तुयें भगवान श्री कृष्ण का अंश मात्र ही हैं। स्थूल तत्व रूप से साकार रूप में दिखाई देते हैं और दिव्य तत्व रूप से निराकार रूप में कण-कण में व्याप्त हैं।

भगवान तो स्वयं में परिपूर्ण हैं......

पूर्ण मदः, पूर्ण मिदं, पूर्णात, पूर्ण मुदचत्ये।
पूर्णस्य, पूर्ण मादाये, पूर्ण मेवावशिश्यते॥

जो परिपूर्ण परमेश्वर है, वही पूर्ण ईश्वर है, वही पूर्ण जगत है, ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण जगत सम्पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता से पूर्ण ही निकलता है और पूर्ण ही शेष बचता है। यही परिपूर्ण परमेश्वर की यह पूर्णता ही पूर्ण विशेषता है।

संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, न तो स्थूल तत्व ही नष्ट होते हैं और न ही दिव्य तत्व नष्ट होते हैं, स्थूल तत्वों के मिश्रण से पदार्थ की उत्पत्ति होती है, पदार्थ ही नष्ट होते हुए दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल तत्व नष्ट नहीं होते हैं इन तत्वों की पुनरावृत्ति होती है परन्तु जो चेतन तत्व आत्मा है वह हमेशा एक सा ही बना रहता है उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।

जीव स्वयं में अपूर्ण है जव जीव आत्मा से संयुक्त होता है तब यह जीवात्मा कहलाता है। इससे सिद्ध होता है जीव ज़ड़ ही है और आत्मा जो कि भगवान का अंश कहलाता है अंश कभी भी अपने अंशी से अलग होकर भी कभी अलग नहीं होता है, इसलिये जो आत्मा कहलाता है वह वास्तव में परमात्मा ही है।
*** उदाहरण के लिये ***
जिस प्रकार कोई भी शक्तिशाली मनुष्य अपनी शक्ति के कारण ही शक्तिमान बनता है, शक्ति कभी शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती है उसी प्रकार भगवान शक्तिशाली हैं, और "अपरा और परा" भगवान की प्रमुख शक्तियाँ हैं इसलिये जीव भगवान से अलग नहीं है।

इस प्रकार जीव स्वयं भी अपना नहीं है तो स्थूल तत्वों से निर्मित कोई भी वस्तु हमारी कैसे हो सकती है जब इन वस्तुओं को हम अपना समझते हैं तो इसे "मोह" कहते हैं, मिथ्या अहंकार के कारण हम स्वयं की पहिचान स्थूल शरीर के रूप में करने लगते है और मोह के कारण शरीर से सम्बन्धित सभी वस्तुओं को अपना समझने लगते हैं।

तब फिर प्रश्न उठता है कि संसार में अपना क्या है?

जीव का जीवन आत्मा और शरीर इन दो वस्तुओं के संयोग से चलता है, यह दोनों वस्तु जीव को ऋण के रूप में प्राप्त होती है, जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दिये हैं। बुद्धि के अन्दर "विवेक" होता है और मन के अन्दर "भाव" की उत्पत्ति होती है। जब बुद्धि के द्वारा जानकर, मन में जो भाव उत्पन्न होता है उसे ही "स्वभाव = स्व+भाव" कहते हैं, यही भाव ही व्यक्ति का अपना होता है। इस स्वभाव के अनुसार ही कर्म होता है।

आत्मा परमात्मा का ऋण है और शरीर प्रकृति का ऋण है, इन दोनों ऋण से मुक्त होना ही मुक्ति कहलाती है, इन ऋण से मुक्त होने की "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार केवल दो विधियाँ हैं।

पहली विधि तो यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा आत्मा और शरीर अलग-अलग अनुभव करके, जीवन के हर क्षण में "भाव" के द्वारा आत्मा को भगवान को सुपुर्द करना होता है और शरीर को प्रकृति को सुपुर्द करना होता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "सांख्य-योग" कहा गया है।

दूसरी विधि यह है कि बुद्धि-विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य कर्म को "निष्काम भाव" से करते हुए कर्म-फलों को भगवान के सुपुर्द कर दिया जाता है, इस विधि को "श्रीमद भगवत गीता" के अनुसार "निष्काम कर्म-योग" या "भक्ति-योग कहा गया है और इसी को "समर्पण-योग" भी कहते हैं।

जिस व्यक्ति को "सांख्य-योग" अच्छा लगता है वह पहली विधि को अपनाता है, और जिस व्यक्ति को "भक्ति-योग" अच्छा लगता है वह दूसरी विधि को अपनाता है। जो व्यक्ति इन दोनों विधियों के अतिरिक्त बुद्धि के द्वारा जो भी कुछ करता है, वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं हो पाता है, इन ऋण को चुकाने के लिये ही उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

इन सभी अवस्था में कर्म तो करना ही पड़ता है और मनुष्य कर्म करने मे सदैव स्वतंत्र होता है, भगवान किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते हैं, क्योंकि किसी के भी कर्म में हस्तक्षेप करने का विधि का विधान नहीं है।

इसलिये मनुष्य को न तो किसी कर्म में हस्तक्षेप करना चाहिये और न ही किसी के हस्तक्षेप करने से विचलित होना चाहिये, इस प्रकार अपनी स्थिति पर दृड़ रहने का अभ्यास करना चाहिये।

जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा करता है, तब बुद्धि के द्वारा सत्य को जानकर सत्संग करने लगता है तो उस व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है, तब उसके मन में उस सत्य को ही पाने की लालसा उत्पन्न होती है।

जब यह लालसा अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब मन में शुद्ध-भाव की उत्पत्ति होती है, तब उस व्यक्ति को सर्वज्ञ सत्य की अनुभूति होती है, यह शुद्ध-भाव मक्खन के समान अति कोमल, अति निर्मल होता है।

बस यही मक्खन परम-सत्य स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, इस शुद्ध-भाव रूपी मक्खन को चुराने के लिये भगवान स्वयं आते हैं।

यही "कर्म-योग" का सम्पूर्ण सार है। यही मनुष्य जीवन का सार है। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन की अन्तिम उपलब्धि है। यही मनुष्य जीवन की परम-सिद्धि है। इसे प्राप्त करके कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। यह उपलब्धि केवल मनुष्य जीवन ही प्राप्त होती है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

श्री हरि विष्णु के दशावतार स्वरूप के दर्शन

श्री हरि विष्णु का कल्की अवतार कलयुग के अंत में होगा

हमारे धर्म ग्रंथों में उल्लेख है कि कलयुग के अंत में भगवान विष्णु अवतरित होंगे तथा संसार को अधर्मियों से मुक्ति दिलाएंगे। महाभारत के वनपर्व में इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख आया है।
उसके अनुसार कलयुग के अंत में जब सत्य की हानि होने के कारण मनुष्यों की आयु थोड़ी हो जाएगी। (उस समय मनुष्य की आयु अधिक से अधिक सोलह वर्ष की होगी।) आयु की कमी के कारण मनुष्य पूर्ण विद्या का उपार्जन नहीं कर सकेंगे। सभी जातियाँ आपस में संतानोत्पादन कर वर्ण संकर हो जाएंगे, इनका विभाग करना कठिन हो जाएगा। गायों का दर्शन दुर्लभ हो जाएगा। कलियुग में वर-कन्या अपने -आप का स्वयंवर कर लेंगे। कोई भगवान का नाम नहीं लेगा। तप,यज्ञ, पूजन आदि बंद हो जाएंगे। ब्राह्मण व्रत-नियमों का पालन नहीं करेंगे। जब चहुंओर असत्य और अधर्म का साम्राज्य होगा। अधिकांश मनुष्य धर्महीन, मांसभोजी और शराब पीने वाले होंगे। उसी समय इस युग का अंत निकट होगा।
तब शम्भल नामक ग्राम में विष्णुयशा नाम के ब्राह्मण के घर में एक बालक का जन्म होगा। उसका नाम होगा कल्की विष्णुयशा। यह बालक बहुत ही बलवान, बुद्धिमान और पराक्रमी होगा। मन के द्वारा चिंतन करते ही उसके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जाएँगे। वह ब्राह्मणों की सेना साथ लेकर संसार में सर्वत्र फैले हुए मलेच्छों का नाश कर डालेगा। वही सब दुष्टों का नाश करके सतयुग का प्रवर्तक होगा। यह ही भगवान की विष्णु का कल्की अवतार होगा।

श्री हरि विष्णु का वामन अवतार