tag:blogger.com,1999:blog-79027515151323244662024-02-18T22:25:43.762-08:00भाग्योत्कर्षछत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित धर्म , आध्यात्म , वास्तु शास्त्र एवम ज्योतिष पर आधारित मासिक पत्र।
BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comBlogger167125tag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-15000292499610990632020-10-04T09:08:00.001-07:002020-10-04T10:10:38.621-07:00भाग्योत्कर्ष अक्टूबर 2020<br><div>भाग्योत्कर्ष अक्टूबर 2020 का अंक पढ़ने के लिए <a href="https://drive.google.com/file/d/126BYt-Natr-nWIHxAT8c_LkG9bNlN2wH/view?usp=drivesdk"><b>इस लिंक</b></a> पर क्लिक करें :<br><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://drive.google.com/file/d/126BYt-Natr-nWIHxAT8c_LkG9bNlN2wH/view?usp=drivesdk">
</a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMyfMl9tr_Kc60i-Wv2DVeMexPH6EceKfnLqPNsMskSYRA65XGXPf0TjCuXP5sayiFObKqWArSYqxvx0A_u9KsJK1KF2X6DVGF3z25mYFaKS4rsfGIw-OQUhC1NGu5XqW11PBpgE0p3tA/s1600/1601827671710528-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHvmgwhW7LDgAxfBCIoq65Ly_-xgSUbfc5xnU-9NXu9aEgecYFquUGQajC5D0T-mPGHSP5yONb02y19vFCsuUAE8Hb45uZE7c9mDhYRGfOZkSBXnz39ZLg7X_01qjhllA38uRivCzABUc/s1600/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%8A+%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%87+%E0%A4%95%E0%A5%87+%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AD+%E0%A5%A4.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHvmgwhW7LDgAxfBCIoq65Ly_-xgSUbfc5xnU-9NXu9aEgecYFquUGQajC5D0T-mPGHSP5yONb02y19vFCsuUAE8Hb45uZE7c9mDhYRGfOZkSBXnz39ZLg7X_01qjhllA38uRivCzABUc/s1600/%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%8A+%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%87+%E0%A4%95%E0%A5%87+%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AD+%E0%A5%A4.jpg" /></a></div>
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जनेऊ पहनने के लाभ<br /><br />पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।<br /><br />यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।<br /><br />यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-<br />उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार<br /><br />सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ<br /><br />यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है<br /><br />यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।<br />आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।<br /><br />जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|<br /><br />यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।<br />बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।<br />Photo: जनेऊ पहनने से क्या लाभ पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता। यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं- उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है| यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।<br />
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BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-71943179042717737142013-05-07T12:01:00.000-07:002013-05-07T12:01:41.229-07:00स्वस्थ रहने में मददगार ये आयुर्वेदिक दोहे … <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />1. जहाँ कहीं भी आपको,काँटा कोइ लग जाय। <br />दूधी पीस लगाइये , काँटा बाहर आय ।। <br /><br />2. मिश्री कत्था तनिक सा,चूसें मुँह में डाल। <br />मुँह में छाले हों अगर,दूर होंय तत्काल ।। <br /><br />3. पौदीना औ इलायची, लीजै दो-दो ग्राम।<br />खायें उसे उबाल कर, उल्टी से आराम ।। <br /><br />4. छिलका लेंय इलायची,दो या तीन गिराम ।<br />सिर दर्द मुँह सूजना, लगा होय आराम ।। <br /><br />5. अण्डी पत्ता वृंत पर, चुना तनिक ।<br />बार-बार तिल पर घिसे,तिल बाहर आ जाय।।<br /><br />6. गाजर का रस पीजिये, आवश्कतानुसार। <br />सभी जगह उपलब्ध यह,दूर करे अतिसार।। <br /><br />7. खट्टा दामिड़ रस, दही,गाजर शाक पकाय।<br />दूर करेगा अर्श को,जो भी इसको खाय।। <br /><br />8. रस अनार की कली का,नाक बूँद दो डाल। <br />खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल ।। <br /><br />9. भून मुनक्का शुद्ध घी,सैंधा नमक मिलाय। <br />चक्कर आना बंद हों,जो भी इसको खाय।।<br /><br />10. मूली की शाखों का रस,ले निकाल सौ ग्राम।<br />तीन बार दिन में पियें, पथरी से आराम ।। <br /><br />11. दो चम्मच रस प्याज की,मिश्री सँग पी जाय। <br />पथरी केवल बीस दिन,में गल बाहर जाय।। <br /><br />12. आधा कप अंगूर रस, केसर जरा मिलाय। <br />पथरी से आराम हो, रोगी प्रतिदिन खाय।। <br /><br />13. सदा करेला रस पिये,सुबहा हो औ शाम। <br />दो चम्मच की मात्रा, पथरी से आराम ।। <br /><br />14. एक डेढ़ अनुपात कप, पालक रस चौलाई। <br />चीनी सँग लें बीस दिन,पथरी दे न दिखाई ।। <br /><br />15. खीरे का रस लीजिये,कुछ दिन तीस ग्राम। <br />लगातार सेवन करें, पथरी से आराम ।।<br /><br />16. बैगन भुर्ता बीज बिन,पन्द्रह दिन गर खाय।<br />गल-गल करके आपकी,पथरी बाहर आय ।।<br /><br />17. लेकर कुलथी दाल को,पतली मगर बनाय। <br />इसको नियमित खाय तो,पथरी बाहर आय ।।<br /><br />18. दामिड़(अनार) छिलका सुखाकर,पीसे चूर बनाय। <br />सुबह-शाम जल डाल कम, पी मुँह बदबू जाय।।<br /><br />19. चूना घी और शहद को, ले सम भाग मिलाय। <br />बिच्छू का विष दूर हो, इसको यदि लगाय ।।<br /><br />20. गरम नीर को कीजिये, उसमें शहद मिलाय। <br />तीन बार दिन लीजिये, तो जुकाम मिट जाय।।<br /><br />21. अदरक रस मधु(शहद) भाग सम, करें अगर उपयोग। <br />दूर आपसे होयगा, कफ औ खाँसी रोग ।। <br /><br />22. ताजे तुलसी-पत्र का, पीजे रस दस ग्राम। <br />पेट दर्द से पायँगे, कुछ पल का आराम ।।<br /><br />23. बहुत सहज उपचार है, यदि आग जल जाय। <br />मींगी पीस कपास की, फौरन जले लगाय ।।<br /><br />24. रुई जलाकर भस्म कर, वहाँ करें भुरकाव।<br />जल्दी ही आराम हो, होय जहाँ पर घाव ।।<br /><br />25. नीम-पत्र के चूर्ण मैं, अजवायन इक ग्राम। <br />गुण संग पीजै पेट के, कीड़ों से आराम ।।<br /><br />26.दो-दो चम्मच शहद औ, रस ले नीम का पात। <br />रोग पीलिया दूर हो, उठे पिये जो प्रात ।।<br /><br />27.मिश्री के संग पीजिये, रस ये पत्ते नीम। <br />पेंचिश के ये रोग में, काम न कोई हकीम ।।</div>
BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-3722737623680303992012-11-29T08:43:00.003-08:002012-11-29T08:47:22.250-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b> </b><br />
<b> Shree Hari Vishnu ji ke Dashaavtar</b></div>
BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-44656531364949485332012-11-29T08:36:00.000-08:002012-11-29T08:40:48.963-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b> Sanktha Ji</b> temple,<br />
located on the bank of river Ganges in the most religious city Varanasi in India.</div>
BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-63872867672272077762012-06-03T05:28:00.003-07:002012-06-03T05:28:32.121-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
काल भैरव मंदिर : उज्जैन नगर ( प्राचीन अवंतिका नगरी )<br />------------------------------------------------------<br /><br />काल भैरव मंदिर आज के उज्जैन नगर में स्थित प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह स्थल शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से संबंधित है। मंदिर के अंदर काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का यह स्थल भी वर्णित है ।<br />उज्जैन भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है। यह विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर १२ वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है । उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से ५५ कि मी पर है. उज्जैन के प्राचिन नाम अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मन्दिरो की नगरी है। यहा कई तीथ स्थल है। <br />उज्जैन के महाकालेश्वर की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। श्री महाकालेश्वर मंदिर के निकट हरसिध्दि मार्ग पर बडे गणेश की भव्य और कलापूर्ण मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति का निर्माण पद् मविभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के पिता विख्यात विद्वान स्व. पं. नारायण जी व्यास ने किया था। मंदिर परिसर में सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा के साथ-साथ नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजित हैं। पुराणों के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल की जननी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए यहाँ पूजा-पाठ करवाने आते हैं। यूँ तो देश में मंगल भगवान के कई मंदिर हैं, लेकिन उज्जैन इनका जन्मस्थान होने के कारण यहाँ की पूजा को खास महत्व दिया जाता है।कहा जाता है कि यह मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया था। उज्जैन नगर के प्राचीन और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिध्दि देवी का मंदिर प्रमुख है। चिन्तामण गणेश मंदिर से थोडी दूर और रूद्रसागर तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हरसिध्दि देवी की पूजा की जाती थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य रही। शिवपुराण के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहां गिरी थी। उज्जैन नगर के धार्मिक स्वरूप में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दाहिने किनारे, जहां नगर स्थित है, पर बने ये घाट स्थानार्थियों के लिये सीढीबध्द हैं। घाटों पर विभिन्न देवी-देवताओं के नये-पुराने मंदिर भी है। गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बडा मंदिर है।यह मंदिर नगर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने सन् 1833 के आसपास कराया था। मंदिर में कृष्ण (गोपाल) प्रतिमा है। मंदिर के चांदी के द्वार यहां का एक अन्य आकर्षण हैं। गढकालिका देवी का यह मंदिर आज के उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी क्षेत्र में है। कालयजी कवि कालिदास गढकालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का सम्राट हर्षवर्धन द्वारा जीर्णोध्दार कराने का उल्लैख मिलता है।गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया। भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा । सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य,चन्द्र, गुरू की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहां कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य,गुरू और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है।</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-75819174786788003122012-01-29T03:57:00.000-08:002012-01-29T04:00:00.612-08:00श्री राधा कृष्ण , जगत के पालनहार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlFfjdpOwcjVZiaY-5-ag-_LL9tfvHZ7fGwdkEw-TDDTSYOyB6LXBcF1E0MNKJmewfjQgZ5Xd-VsxEPEThiAD6-gI8394UG3awkxrQrv9GiVYhXvXeNHdfRLIiUDo2tVsGsB1yfn71uFg/s1600/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80+%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%BE+%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="287" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlFfjdpOwcjVZiaY-5-ag-_LL9tfvHZ7fGwdkEw-TDDTSYOyB6LXBcF1E0MNKJmewfjQgZ5Xd-VsxEPEThiAD6-gI8394UG3awkxrQrv9GiVYhXvXeNHdfRLIiUDo2tVsGsB1yfn71uFg/s400/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80+%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%BE+%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">भगवन</td></tr>
</tbody></table><br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-55318697558371789152011-12-07T17:21:00.000-08:002011-12-07T17:22:57.128-08:00बड़ी लाभप्रद है पैर छूने की परंपरा ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuDoUq64lqVFoYeaIMwXIkLfdLeh9m-atfO1lQRM5NoOtngrPbH095iYR7Cii4IRjbarfHkW26o8XuetaWbHx82I4AdTbAWi9iWfU6Adr8n3nHdmJAvgSU5sbVDRu17Q_ux4qCHfdWOd0/s1600/%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2588%25E0%25A4%25B0+%25E0%25A4%259B%25E0%25A5%2582%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuDoUq64lqVFoYeaIMwXIkLfdLeh9m-atfO1lQRM5NoOtngrPbH095iYR7Cii4IRjbarfHkW26o8XuetaWbHx82I4AdTbAWi9iWfU6Adr8n3nHdmJAvgSU5sbVDRu17Q_ux4qCHfdWOd0/s200/%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2588%25E0%25A4%25B0+%25E0%25A4%259B%25E0%25A5%2582%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE.jpg" width="200" /></a></div>हिंदू परंपराओं में से एक परंपरा है सभी उम्र में बड़े लोगों के पैर छुए जाते हैं। इसे बड़े लोगों का सम्मान करना समझा जाता है। किसी के पैर छुना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है। इसलिए बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया।<br />
उम्र में बड़े लोगों के पैर छुने की परंपरा काफी प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इससे आदर-सम्मान और प्रेम के भाव उत्पन्न होते हैं। साथ ही रिश्तों में प्रेम और विश्वास भी बढ़ता है।जिन लोगों के पैर छुए जाते हैं उनके लिए शास्त्रों में कई नियम भी बनाए हैं। यदि कोई आपके पैर छुता है तो आपको क्या करना चाहिए…<br />
ऐसा माना गया है कि जब भी कोई आपके पैर छुता है तो इससे आपको दोष भी लगता है। इस दोष से मुक्ति के लिए भगवान का नाम लेना चाहिए। भगवान का नाम लेने से पैर छुने वाले व्यक्ति को भी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं और आपके पुण्यों में बढ़ोतरी होती है। आशीर्वाद देने से पैर छुने वाले व्यक्ति की समस्याएं समाप्त होती है, उम्र बढ़ती है।<br />
पैर छुना या प्रणाम करना, केवल एक परंपरा या बंधन नहीं है। यह एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक और वैचारिक विकास से जुड़ा है। पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है। पैर छुने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होती है, तीन तरह से पैर छुए जाते हैं। पहले झुककर पैर छुना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम। झुककर पैर छुने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है। दूसरी विधि में हमारे सारे जोड़ों को मोड़ा जाता है, जिससे उनमें होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है, तीसरी विधि में सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी स्ट्रेस दूर होता है। इसके अलावा झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है। प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है।<br />
<br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-8003665308739573752011-10-12T07:17:00.000-07:002011-10-12T07:17:55.982-07:00हिंदु धर्म में बताए गए वस्त्र धारण करने से क्या लाभ होता है ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6MsBngtcVUj1mz2cj3zOjnmBAGHVdm47uUjZkfEBHCFCivpiWZ-BLvL32ePDexr42HV6So5-QGJzYRq2B2cEutubvLawA9mtk9lXBhFwJTlXcj6iR4v2lp61nCVN_RiNp1FiXJokV9O8/s1600/Sari.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6MsBngtcVUj1mz2cj3zOjnmBAGHVdm47uUjZkfEBHCFCivpiWZ-BLvL32ePDexr42HV6So5-QGJzYRq2B2cEutubvLawA9mtk9lXBhFwJTlXcj6iR4v2lp61nCVN_RiNp1FiXJokV9O8/s320/Sari.jpg" width="164" /></a></div><br />
<br />
हिंदु धर्ममें बताए गए वस्त्र धारण करनेसे क्या लाभ होता है ?<br />
हिंदु धर्म में स्त्री एवं पुरुष द्वारा धारण किए जाने वाले वस्त्रों की रचना देवताओं ने की है । इसीलिए ये वस्त्र शिव एवं शक्ति तत्त्व प्रकट करते हैं । स्त्रियों के वस्त्रों से अर्थात साडी से शक्ति तत्त्व जागृत होता है एवं पुरुषों के वस्त्रों से शिवतत्त्व जागृत होता है ।<br />
सारणी -<br />
<br />
१. कपडे (वस्त्र) धारण करने का महत्त्व एवं लाभ<br />
१.१ शारीरिक दृष्टि से महत्त्व<br />
१.२ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्व<br />
१.३ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्त्व<br />
<br />
१. कपडे (वस्त्र) धारण करनेका महत्त्व एवं लाभ<br />
१.१ शारीरिक दृष्टि से महत्त्व<br />
<br />
वस्त्र पहनने से शीलरक्षण होता है, अर्थात लज्जा की रक्षा होती है; साथ ही ठंड, वायु, उष्णता, वर्षा आदि से भी देह का रक्षण होता है ।<br />
<br />
१.२ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्व<br />
<br />
१. वस्त्रों से मनुष्य के स्वभाव एवं व्यक्तित्व का बोध होना : मनुष्य अपने स्वभाव के अनुरूप वस्त्र चुनता है । साधारणत: जो लोग सदैव व्यवस्थित एवं इस्त्री किए हुए वस्त्र पहनते हैं, वे अनुशासनप्रिय एवं परिपूर्ण स्वभाव के होते हैं । जो सदैव अनौपचारिक एवं सुखदायक वस्त्र पहनते हैं, वे मिलनसार एवं स्वच्छंद स्वभाव के होते हैं । जो लोग सदैव अस्त-व्यस्त एवं विचित्र वस्त्र पहनते हैं, वे स्वभाव से आलसी एवं असावधान होते हैं । संक्षेप में, वस्त्र मनुष्य के स्वभाव एवं व्यक्तित्व का परिचायक होते हैं । अतएव मनुष्य के लिए व्यावहारिक जीवन में विशिष्ट प्रसंग के लिए पूरक वस्त्र धारण करना आवश्यक है । उदा. नौकरी के साक्षात्कार (इंटरव्यू) के लिए जाते समय व्यवस्थित एवं इस्त्री किए परिधान में जाने से मनुष्य के अनुशासनप्रियता एवं नम्रता जैसे गुण प्रदर्शित होते हैं ।<br />
२. वस्त्रों द्वारा मनुष्य की मानसिकता प्रभावित होना : नए वस्त्र पहनने पर हमें एक प्रकार की सुखद संवेदना होती है । दूसरी ओर, अनेक लोगों का यह अनुभव है कि, जब अत्यंत मलिन अथवा तंग वस्त्र पहनने पडते हैं, तब उनकी दुर्गंध अथवा उनके टांके चुभने से व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है । तात्पर्य यह कि, वस्त्र मनुष्य की मन:स्थिति को प्रभावित करते हैं । इंग्लैंड के 'आर्थर एंडरसन' नामक व्यावसायिक प्रतिष्ठान ने (कंपनीने) इस विषयपर शोध किया एवं अपने कर्मचारियों के परिधान में उचित परिवर्तन किए । परिणामस्वरूप कर्मचारी कार्य करते समय सहज रहने लगे, उनकी कार्यक्षमता में विलक्षण प्रगति हुई और उन्हें समाधान मिलने लगा ।<br />
<br />
१.३ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्त्व<br />
<br />
१. वस्त्र धारण करना, अर्थात ब्रह्मपद पर आरूढ होने हेतु माया का (वस्त्रका) आलंबन करना : 'वस्त्र धारण करना, अर्थात ब्रह्मपद पर आरूढ होने हेतु माया में कार्य करनेके लिए माया का (वस्त्रका) आलंबन करना ।' - एक ज्ञानी <br />
२. धर्माचरण का प्रमाण देने वाली वेशभूषा, जीव को पाप से परावृत्त करने वाली : 'बाह्य विश्व को धर्माचरण का प्रमाण देने वाली (रेशमी) धोती, उपरना, तिलक, माला इत्यादि वेशभूषा जीव को पाप, अधर्म, मुक्त संभोग एवं मद्यपान से दूर रखती है, प्रतिबंधित करती है ।' - गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी<br />
३. सात्त्विक वस्त्र धारण करने से वायुमंडल में विद्यमान सत्त्व तरंगों का जीव की ओर आकृष्ट होना : 'जीव द्वारा शरीर पर वस्त्र धारण करने से उनके सूक्ष्म-स्पर्श का घर्षण होता है । इससे वायुमंडल में विद्यमान सात्त्विक तरंगें वस्त्र की सहायता से जीव के सूक्ष्म-कोष एवं देह में आकृष्ट होती हैं ।' - एक ज्ञानी <br />
४. हिंदु धर्ममें बताए गए वस्त्र धारण करने से उनसे शिव एवं शक्ति का तत्त्व जागृत होना : 'हिंदु धर्म में स्त्री एवं पुरुष द्वारा धारण किए जाने वाले वस्त्रों की रचना देवताओं ने की है । इसीलिए ये वस्त्र शिव एवं शक्ति तत्त्व प्रकट करते हैं । स्त्रियों के वस्त्रों से अर्थात साडी से शक्तितत्त्व जागृत होता है एवं पुरुषों के वस्त्रों से शिवतत्त्व जागृत होता है । शास्त्रानुसार वस्त्र धारण करने से हमें अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय और अनुभव होता है । साथ ही हमारी आध्यात्मिक शक्ति का व्यय नहीं होता; अपितु उसकी बचत होती है । देवताओं द्वारा निर्मित वस्त्र पहनने से स्थूलदेह एवं मनोदेह के लिए आवश्यक शक्ति अपने आप मिलती है ।' - <br />
५. हिंदु धर्म में बताए अनुसार वस्त्र धारण करने से ईश्वरीय चैतन्य एवं देवताओं के तत्त्व आकृष्ट होना : इसके दो उदाहरण आगे दिए हैं ।<br />
<br />
अ. कुर्ता एवं पजामा : 'कुर्ता एवं पजामा पहनने से शरीरके चारों ओर दीर्घवृत्ताकार (दीपकी ज्योतिसमान) कवच निर्मित होता है । इससे जीवके लिए वायुमंडल से ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण करना सुलभ होता है । साथ ही रज-तम पर विजय पाना भी सुलभ होताहै।<br />
आ. रेशमी धोती : कुर्ता एवं पजामाकी अपेक्षा रेशमी धोती अधिक सात्त्विक है । उसे धारण करने से जीव की देह के सर्व ओर सूक्ष्म गोलाकार कवच निर्मित होता है । इससे जीव के लिए देवता के तारक-मारक एवं सगुण निर्गुण, दोनों तत्त्व ग्रहण करना सुलभ हो जाता है ।'<br />
- एक विद्वान <br />
<br />
६. वस्त्रों द्वारा सात्त्विकता आकृष्ट एवं प्रक्षेपित होना, यह वस्त्र के प्रकार एवं वस्त्र धारण करने की पद्धतियों पर निर्भर करना:<br />
<br />
वस्त्र एवं उसे परिधान<br />
करने की पध्दति<br />
वस्त्र व्दारा सात्त्विकता ग्रहण<br />
एवं प्रक्षेपित होने की मात्रा<br />
१. 'नौ गज की साडी एवं धोती सर्वाधिक<br />
२. छ: गजकी साडी<br />
अ. बाएं कंधे पर पल्लू लेना<br />
आ. दाएं कंधे पर पल्लू लेना <br />
अधिक<br />
अल्प<br />
३. लुंगी अल्प<br />
४. सलवार-कुर्ता अथवा चुडीदार-कुर्ता <br />
अ. चुनरी दोनों कंधों पर लेना <br />
आ. चुनरी एक कंधे पर लेना छ: गज की साडी से अल्प<br />
अधिक<br />
अल्प<br />
<br />
<br />
इससे हिंदु संस्कृति के परंपरागत परिधान, नौ-गज लंबी साडी एवं धोती का महत्त्व ज्ञात होता है । हिंदु संस्कृति चैतन्य मय संस्कृति कैसे है, इसका यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है ।<br />
७. धार्मिक विधि के समय एवं तीज-त्यौहार पर हिंदु धर्म की परंपरा के अनुसार सात्त्विक वस्त्र धारण करने से सर्वाधिक ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण होना : 'हिंदु धर्मानुसार वर्ष भर में अनेक त्यौहार, व्रत एवं पर्वोत्सव आते हैं । साथ ही विविध पूजा एवं उपनयन, विवाह जैसी धार्मिक विधियां की जाती हैं । श्रीरामनवमी, जन्माष्टमी, हनुमान जयंती, संतों के प्रकटोत्सव आदि दिनों पर विशिष्ट देवी-देवताओं एवं संतों का तत्त्व अधिक मात्रा में कार्यरत रहता है । धार्मिक विधि के समय हम पूजास्थल पर देवताओं का आवाहन करते हैं, इसलिए देवता वहां उपस्थित रहते हैं । तात्पर्य यह है कि, उस विशिष्ट दिन ईश्वरीय चैतन्य अधिक मात्रा में कार्यरत रहता है । उस दिन हिंदु धर्मकी परंपरा के अनुसार सात्त्विक परिधान धारण करने से उस चैतन्य का हमें अधिक लाभ हो सकता है, उदा. स्त्रियोंके लिए छ: गज अथवा नौ गज लंबी सुनहरी तार (जरी) के छोरवाली साडी पहनना एवं पुरुषों के लिए धोती-उपरना अथवा कुर्ता-पजामा पहनना अधिक उचित है ।'<br />
.<br />
८. त्यौहार, शुभ दिन एवं धार्मिक विधि के दिन नए अथवा रेशमी वस्त्र और विविध अलंकार धारण करने के लाभ:<br />
<br />
देवताओं के आशीर्वाद प्राप्त होना : त्यौहार, शुभ दिन एवं धार्मिक विधि के दिन कभी-कभी देवता सूक्ष्मरूप से भूतल पर आते हैं । उस दिन वस्त्रालंकार से सुशोभित होना, उनका स्वागत करने के समान है । इससे देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं एवं हम देवताओं की तरंगें ग्रहण कर पाते हैं ।<br />
देवताओं की तत्त्वतरंगों का संपूर्ण वर्ष लाभ होना : त्यौहार के दिन नए अथवा रेशमी (अर्थात सात्त्विक) परिधान धारण करने से देवताओं के तत्त्व उन विशिष्ट वस्त्रों में अधिकाधिक आकृष्ट होते हैं, जिससे वस्त्र सात्त्विक बनते हैं । वस्त्रोंमें आकृष्ट देवताओं की तत्त्वतरंगें दीर्घकाल तक बनी रहती हैं । वस्त्र धारण करनेवाले को देवताओं की तत्त्वतरंगों का पूर्ण वर्ष तक लाभ मिलता है । (वस्त्र धोने के उपरांत भी देवताओं के तत्त्व उसमें आकृष्ट होने में सहायता होती है ।)<br />
देवताओं की तत्त्वतरंगों से देहों की शुद्धि होना : देवताओं की तत्त्वतरंगें जीव की स्थूलदेह, मनोदेह, कारण देह एवं महाकारण देह की ओर अधिकाधिक आकृष्ट होती हैं । इससे उन देहों की शुद्धि होती है और वे सात्त्विक बनते हैं ।<br />
<br />
९. वस्त्रों के कारण अनिष्ट शक्तियों से रक्षण होना<br />
<br />
अ. अपवित्र एवं नग्न रहने से अनिष्ट शक्तियों के कष्ट की आशंका होना<br />
शक्तिविषये न मुहूर्तमप्यप्रयत: स्यात् । नग्नो वा ।।<br />
- आपस्तंबधर्मसूत्र प्रश्न १, सूत्र ५, काण्डिका १५, पटल ८, ९<br />
अर्थ : यथासंभव एक क्षण भी अपवित्र एवं नग्न नहीं रहना चाहिए ।<br />
अनिष्ट शक्तियों से बालकों की रक्षा हेतु, उन्हें वस्त्र में लपेटकर रखते हैं, नग्न नहीं रखते । <br />
आ. हिंदु धर्म में बताए अनुसार वस्त्र धारण करने से अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होना: साडी की चुन्नट से शक्तिप्रवाह भूमि की दिशा में प्रक्षेपित होने पर पाताल की अनिष्ट शक्तियों से स्त्रियों की रक्षा होना : साडी द्वारा प्रक्षेपित शक्तितत्त्व का वायुमंडल की अनिष्ट शक्तियों से अनायास ही युद्ध होता है । इससे व्यक्ति के मन एवं बुद्धि पर अनिष्ट शक्ति का प्रभाव घटता है । साडी की प्रत्येक चुन्नट से प्रक्षेपित शुभ्र प्रकाश का स्त्रोत तलवार जैसा होता है । चुन्नट से शक्तिप्रवाह भूमि की दिशा में प्रक्षेपित होता है, इसलिए पाताल की अनिष्ट शक्तियों से भी स्त्री की रक्षा होती है ।<br />
<br />
इ. त्यौहार एवं धार्मिक विधि के दिन नए अथवा रेशमी वस्त्र और अलंकार धारण करने से अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होना : यज्ञ, उपनयन, विवाह, वास्तुशांति जैसी धार्मिक विधिके समय देवता और आसुरी शक्तियों का सूक्ष्म-युद्ध क्रमश: ब्रह्मांड, वायुमंडल एवं वास्तु, इन स्थानों पर होता है । अत: त्यौहार मनाने वालों एवं धार्मिक विधि के लिए उपस्थित व्यक्तियों पर इस सूक्ष्म-युद्ध का परिणाम होता है । इससे उन्हें अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट होने की आशंका रहती है । विविध स्वर्णालंकार एवं नए अथवा रेशमी वस्त्र धारण करनेवाले व्यक्तिके सर्व ओर ईश्वरके सगुण-निर्गुण स्तर के चैतन्य का सुरक्षा वलय निर्मित होता है । इससे व्यक्ति की सात्त्विकता बढती है व अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से उसकी रक्षा होती है ।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8hvqU5S5y7j4F8ynFsr5mMxwTxjXIm2cVwpY683mStpBa6tYDfEJQelPkmturplC9ls5zgClvDhp1C-_oMZcMeIkckcq5ZAzhIRuoyYSiI9QFNVl0YkgBTqsTcKss5SQN0u2PkZimOvI/s1600/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BF.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8hvqU5S5y7j4F8ynFsr5mMxwTxjXIm2cVwpY683mStpBa6tYDfEJQelPkmturplC9ls5zgClvDhp1C-_oMZcMeIkckcq5ZAzhIRuoyYSiI9QFNVl0YkgBTqsTcKss5SQN0u2PkZimOvI/s1600/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BF.jpg" /></a></div><br />
ऎसे सभी जो आज किसी कारण वश हमारे मध्य नहीं तथा इस लोक को छोड कर परलोक में वास कर रहे है, तथा इस लोक को छोडने का कारण अगर शस्त्र, विष या दुर्घटना आदि हो तो ऎसे पूर्वजों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है. व चतुर्दशी तिथि में लोक छोडने वाले व्यक्तियों का श्राद्ध अमावस्या तिथि में करने का विधान है.<br />
<br />
पितृ कौन हैं?<br />
<br />
माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। जो जीवन रहते उनकी सेवा नहीं कर पाते, उनके देहावसान के बाद बहुत पछताते हैं। इसीलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पत्र की अनिवार्यता मानी गई है। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर ला दिया। जन्मदाता माता-पिता को मृत्योपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। प्रस्तुत है पितृ एवं पितृ पक्ष के महत्व की विशेष जानकारी -<br />
<br />
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन<br />
दद्याज्जलाज्जलीन।<br />
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।<br />
<br />
<br />
श्राद्ध पक्ष में अपने दिवंगत पितरों के निमित्त जो व्यक्ति तिल, जौ, अक्षत, कुशा, दूध, शहद व गंगाजल सहित पिण्डदान व तर्पणादि, हवन करने के बाद ब्राह्माणों को यथाशक्ति भोजन, फल-वस्त्र, दक्षिणा, गौ आदि का दान करता है, उसके पितर संतृप्त होकर साधक को दीर्घायु, आरोग्य, स्वास्थ्य, धन, यश, सम्पदा, पुत्र-पुत्री आदि का आशीर्वाद देते हैं। जो व्यक्ति जान-बूझकर श्राद्ध कर्म नहीं करता, वह शापग्रस्त होकर अनेक प्रकार के कष्टों व दु:खों से पीड़ित रहता है। अपने पूर्वज पितरों के प्रति श्रद्धा भावना रखते हुए पितृ यज्ञ व श्राद्ध कर्म करना नितांत आवश्यक है। इससे स्वास्थ्य, समृद्धि, आयु एवं सुख-शांति में वृद्धि होती है।<br />
<br />
श्राद्ध में कुश और तिल का महत्व-----<br />
<br />
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।<br />
श्राद्ध के देवता<br />
<br />
वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।<br />
<br />
कम ख़र्च में श्राद्ध----<br />
<br />
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।<br />
<br />
<br />
किसे करना चाहिए श्राद्ध?<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
श्राद्ध के प्रकार---<br />
<br />
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-<br />
<br />
नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथी पर किया जाता है।<br />
नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे-पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।<br />
काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृतिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
श्राद्ध के लिए अनुचित बातें----<br />
<br />
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक। भैंस, हिरिणी, उँटनी, भेड़ और एक खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है।<br />
<br />
<br />
<br />
अनुष्ठान का अर्थ----<br />
<br />
अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं----<br />
<br />
स्थूल शरीर के रूप में<br />
भावनात्मक रूप से।<br />
<br />
श्राद्ध विधि : ऐसे करें पितरों को तृप्त ----<br />
<br />
हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है।<br />
इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है -<br />
- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।<br />
- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।<br />
- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।<br />
- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।<br />
- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।<br />
- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।<br />
- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।<br />
- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।<br />
- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।<br />
- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।<br />
- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।<br />
<br />
आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं -<br />
- सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।<br />
- घर आंगन में रंगोली बनाएं।<br />
- महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।<br />
- श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।<br />
- ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।<br />
- पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें।<br />
गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।<br />
- ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।<br />
- ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्य<br />
श्राद्ध किसी दूसरे के घर में दूसरे की भूमि में कभी नही करना चाहिये,ज भूमि सार्वजनिक हो,जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व नही हो,वहां श्राद्ध कर्म किया जा सकता है,शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार दूसरों के घर मे श्राद्ध करने पर खुद के पितरों को कुछ नही मिलता है,गृहस्वामी के पितर बलपूर्वक श्राद्ध करने वाले के पितरों से सब कुछ छीन लेते है।<br />
<br />
यदि किसी विवशता के कारण ही दूसरे के गृह अथवा भूमि में श्राद्ध करना पडे,तो सर्वप्रथम उस भूमि का किराया अथवा मूल्य उस भूस्वामी को दे देना चाहिये।<br />
<br />
जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं पूरे वर्ष श्राप देते तथा अपने सगे संबंधियों का रक्त चूसते रहते हैं और वर्ष भर उनके घर में मांगलिक कार्य नहीं होते। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में पितृ दोष का सबसे अधिक महत्व है। यदि घर में कोई मांगलिक कार्य नहीं हो रहे हैं, रोज नई-नई आफतें आ रही है, आदमी दीन-हीन होकर भटक रहा है या संतान नहीं हो रही है, या विकलांग पैदा हो रही है तो इसका मुख्य कारण यह है कि उस व्यक्ति की कुंडली में श्राद भाव से अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा पक्ष की अमावस्या को विधि विधान के साथ पिंड श्राद्ध करता है, तो पितृ उससे प्रसन्न हो जाते हैं तथा उसे आशीर्वाद देकर जाते ।<br />
<br />
पितृ पक्ष का महत्व-----<br />
<br />
ज्योतिष शास्त्र में ऋतुओं तथा काल, पक्ष, उत्तरायण तथा दक्षिणायन, उत्तर गोल और दक्षिण गोल का अत्यधिक महत्व है। उत्तर गोल में देवता पृथ्वी लोक में विचरण करते हैं, वहीं दक्षिण लोक भाद्र मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नजदीक से गुजरता है। इसी मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा से अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर पहुंच जाते हैं और वहां अपना असम्मान या अपनी नई पीढ़ी में नास्तिकता को देख दुखी होकर श्राप देकर चले जाते हैं। वे पितृलोक में जाकर अपने साथियों के समक्ष अपने परिवार का दुख प्रकट करते हैं और पूरे वर्ष दुखी रहते हैं। अगर उनकी नई पीढ़ी पितरों के प्रति सम्मान रख रही है तो वे दूसरे पितरों से मिलकर अपनी पीढ़ी की बड़ाई करते हुए फूले नहीं समाते हैं। ऐसा वर्णन श्राद्ध मीमांसा में आया है।<br />
<br />
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से है। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। उस पर प्रसन्न होकर पितृ उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।<br />
<br />
शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निर्मित जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते है, और घर, परिवार व्यवसाय तथा आजीविका में हमेेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से अपने माता-पिता आदि सम्माननीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध न करने से, उनके निर्मित वार्षिक श्राद्ध आदिन करने से पितरों का दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति वंश वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी संकट धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएं होते हुए भी मन असंतुष्ट रहना आदि पितृ दोष भी हो सकते हैं। कहते हैं कि यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हो हुई हो, तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएं। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत पुराण की कथा करवाएं। वैसे श्रीमद भागवत पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आत्म शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती<br />
<br />
पितरों का मोक्ष द्वार ‘गयाजी’-----<br />
<br />
हे पुण्यात्मा! हम तुम्हें नमन करते हैं। तीनों लोकों में तुम जहां भी और जिस रूप में भी हो, हमारी तिलांजलि आप तक पहुंचे और आप तृप्त हों। अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए गंगा में खड़े होकर लाखों लोग रोज ऐसे ही अपने पितरों को तृप्त करते हैं।<br />
<br />
कहते हैं कि जो ‘गया’ हो आए उन्हें मोक्ष मिल गया, उस पर भी अकेले नहीं बल्कि अपने सभी पितरों के साथ। दुनिया में हिंदू धर्मावलंबियों के लिए गया, मोक्ष स्थली के रूप में विख्यात है।<br />
<br />
प्राचीन काल से नदियों के किनारे बसे नगर, किले उस पर भी अगर पहाडि़यां हों, और वो भी वनों से घिरी हों तो उसका महत्व द्विगुणित हो जाता है। पहाड़ और राजमार्ग की संधि पर जन्में ऐसे नगरों की अपनी विशेषताएं उनकी प्रगतिशीलता होती हैं। वे नए जमाने के अनुसार बदलते रहते हैं। गया ऐसा ही एक घर्मनगर है जिसे पुरातन काल से श्रद्धा भाव के कारण ‘गया जी’ कहते चले आ रहे हैं। भारत वर्ष के गौरवमयी प्राचीन मगध क्षेत्र के हृदय भाग में बसा यह नगर इतिहास, धर्म, संस्कृति, पुरातत्व जनचेतना के मामले में प्रारंभ से ही अग्रणी रहा है। इस क्षेत्र के कौतुहलपूर्ण इतिहास को हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख व इस्लाम के संत फकीरों ने विभिन्न मौकों पर उजागर किया है। इस शहर का इतिहास प्राचीन, अनोखा, और वास्तव में गौरवशाली रहा है। पटना से करीब 92 किलोमीटर की दूरी पर और अंतः सलिला फल्गु के किनारे बसे गया का धर्म और इतिहास के पर्वों पर बड़ा ही नाम है।<br />
<br />
यहां प्राचीनकाल से ही सभी धर्मों के लोगों के उपासना स्थल का होना, यहां की सहिष्णु मिट्टी का साक्षात् गवाह है। तभी तो इसे पांचवां धाम कहा जाता है। हरेक साल 15 दिनों के लिए होने वाला पितृपक्ष का मेला इस नगर की एक विशिष्ट पहचान है। गौरतलब है कि श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण प्रायः हरेक भारतीय तीर्थों में संपादित होता है, पर इस अनुष्ठान के नाम पर विशाल मेला केवल गया में ही लगता है, जहां भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विनी अमावस्या तक इस कार्य के निमित्त देश के दूरस्थ स्थानों और विदेशों से भी लोगों का आगमन होता है। इसे इस नगर की खासियत ही कही जाएगी कि यहां साल भर श्राद्ध पिंडदान होता रहता है।<br />
<br />
भारत में तीन नगरों के नाम व इतिहास असुरों के साथ संबद्ध है। इसमें गया की यह विशेषता कही जायेगी कि यहां का श्रीपुरुष विष्णुभक्त पराक्रमी गयासुर देवभक्त था। असुरों में भक्ति का प्रणम्य पुरुष था, जबकि जालंधर नगरी का जालंधर और तंजौर नगरी के तेजासुर अपने अनैतिक व दुष्ट कामों के लिए कुख्यात थे। इसी गयासुर के भक्तिभाव का असर है कि यहां के लोग धर्म-कर्म में खूब विश्वास करते हैं। सनातन धर्म के ऐसे कोई तीर्थ व देवता नहीं जिनका गया में स्थान न हो, इसी लिए गया को सर्वतीर्थमयी भी कहा जाता है। गया एक ऐसा नगर है जहां प्राचीन व अर्वाचीन का अद्भुत दर्शनीय है। देव मंदिरों के पूजन अर्चन व दर्शन यहां के लोगों की दिनचर्या में शामिल हैं। शहर के शताधिक मंदिरों में खासकर श्री विष्णुपद, माता मंगला गौरी, श्री बंगला स्थान, माई वागेश्वरी, श्री भैरो स्थान मार्कडेश्वर शिव, फल्केश्वर महादेव, पितामाहेश्वर, वृद्धपरपिता माहेश्वर गोदावली, महावीर स्थान, अक्षयवट आदि में बारहो मास गहमागहमी बनी रहती है।<br />
<br />
गया को धरोहर समेट एक पुरातन नगरी भी कहा जाता है। जहां गांव-जबारी में पग-पग पर इतिहास-पुरातत्व के कण बिखरे पड़े हैं। नवाश्म काल से लेकर हरेक भारतीय काल का जीत स्थल यहां मौजूद है, यहां के धरोहरों पर कार्य करने के लिए आज भी कितने ही विदेशी शोधार्थी आते रहते हैं। इसके गर्भ में बौद्ध, जैन व हिंदु स्थलों की भरमार है। गया की बात चले और बोधगया की बात न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? दरअसल शुरू से ही गया और बोधगया का चोली-दामन की तरह अभित्र संबंध रहा है। और तो और पंचकोशी गया क्षेत्र में प्रेतशिला व ब्रह्मयोनी में से एक से लेकर बोधगया तक की भूमि का उल्लेख किया गया है। गया से तकरीबन 11 किलोमीटर की दूरी पर निरंजना नदी के पार्श्व में विराजमान बोधगया वही भूमि है जहां करीब 2550 वर्ष पूर्व तथागत को आत्मज्योति की संप्राप्ति हुई।<br />
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गया भ्रमणकालीन संस्कृति का मर्धन्य केंद्र कहलाता है जहां भ्रमणार्थी सालों भर आते रहते हैं। यह जानकर गर्व होता है कि यह वही नगर है जहां बिहार प्रांत में पहले पहल 1855 ई. में एक विशाल पुस्तकालय व संग्रहालय की स्थापना की गई। आज भी यहां पुस्तकालयों व संग्रहालयों की कोई कमी नहीं है। वर्तमान में यहां मगध संस्कृति केंद्र सह गया संग्रहालय निर्माणधीन है। मंत्र लाल पुस्तकालय, मारवाडी पुस्तकालय, जनता पुस्तकालय आदि पाठक के दिलोदिमाग में आज भी बसे हैं। गया क्षेत्र की मूल भाषा मगही है जो बुद्ध काल के पूर्व की भाषा मानी जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि गया की भाषा व बोली गर्म है, जबकि सच्चाई यह है कि किसी गयावासी के मुख से कोई मगही संवाद सुन ले तो उसमें अक्खड़पन लिए प्यार-मनुहार का रूप प्रतीत होता है। आज इस क्षेत्र में मगही में कितने ही कार्य हो रहे हैं तब भी यह संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पाने से वंचित है। यह सर्वप्राचीन भारतीय लोकभाषा है।<br />
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गया रास-रंग के लिए भी दूर-दराज तक प्रसिद्ध है। एक ओर जहां खूब तीखा व खट्टा प्रेमी यहां मिल जाएंगे, तो कितने ही लोग ऐसे हैं जो मिष्ठान से ही पेट भर लेते हैं। पान के बारे में तो पूछिए मत! इन सबके दांत इस बात के मूक गवाह हैं कि इनका खाना बगैर पान के हजम नहीं होता। बैठकबाजी, बतकही व फबती भी गया के लोगों को अच्छा लगता है। चर्चा चाहे किसी विषय की हो पर तय है कि यहां से निकली बात दूर तलक जाती है। इधर हाल के दिनों में नगर ने बिजली और पानी की समस्या से तो निजात पाई है, पर गंदगी का कोई स्पष्ट हल नहीं निकला है। यहां के साहित्यकार-पत्रकार संघ ने भी इस दिशा में पहल की है, पर नतीजे कुछ खास नहीं निकले। गया नगर की यह विशेषता कही जाएगी कि यहां लेखनहारों की कोई कमी नहीं। प्रत्येक मुहल्ला यहां लेखकों से शोभायमान है। कलमकारी यहां का जीवंत पेशा है। कुल मिलाकर यह कहना उचित जान पड़ता है कि इस लोक से परलोक के बीच संबंध का स्थल गया एक तरण तारन की स्थली है जहां के प्राचीन आदर्श आज भी उसी रूप में जीवंत है। तो फिर देर किस बात की आपका गया आगमन हर पल हर घड़ी शुभकारी होगा, ऐसा शास्त्रोउक्त मत है।<br />
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श्राद्ध विवेचन-----<br />
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प्रत्येक शरीर में आत्मा तीन रूप में पाई जाती है,पहली विज्ञान आत्मा दूसरी महान आत्मा और तीसरी भूत आत्मा,विज्ञान आत्मा वह है,तो गर्भाधान से पहले स्त्री पुरुष में संभोग की इच्छा उत्पन्न करती है,वह आत्मा रोदसी नामक मंडल से आता है,उक्त मंडल पृथ्वी से सत्ताइस हजार मील दूर है,दूसरी है महान आत्मा वह चन्द्रलोक से अट्ठाइस अंशात्मक रेतस बनाकर आता है,उसी २८ अंश रेतस से पुरुष पुत्र पैदा करता है,तीसरी है भूतात्मा जो माता पिता द्वारा खाने वाले अन्न के रस से बने वायु द्वारा गर्भ पिण्ड में प्रवेश करता है,उससे खाये गये अन्न और पानी की मात्रा के अनुसार अहम भाव शामिल होता है,इसी को प्रज्ञानात्मा तथा भूतात्मा कहते है,यह भूतात्मा पृथ्वी के अलावा किसी अन्य लोक में नही जा सकती है,मृत प्राणी की महानात्मा स्वजातीय चन्द्र लोक में चला जाता है,चन्द्र लोक में उस महानात्मा से २८ अंश रेतस मांगा जाता है,क्योंकि चन्द्रलोक से २८ अंश रेतस लेकर ही वह उत्पन्न हुआ था,इसी अट्ठाइस अंश रेतस को पितृ ऋण कहते है,२८ अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का सम्बन्ध मध्यान्हकाल में पृथ्वी से होता है,इसलिये ही मध्यान्हकाल में श्राद्ध करने का विधान है,पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल के सम्पर्क से ही बनती है,संसार में सोम सम्बन्धी वस्तु विशेषत: चावल और जौ ही है,जौ में मेधा की अधिकता है,धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है,अश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिण्डदान किया जावे तो चन्द्रमण्डल को रेतस पहुंच जाता है,पितर इसी चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,"विदूर्ध्वभागे पितरो वसन्त: स्वाध: सुधादीधीत मामनन्ति"।<br />
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अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की ओर रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है,श्राद्ध की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त उनकी आत्मा की तृप्ति के लिये श्रद्धा पूर्वक जो अर्पित किया जाता है,वह ही श्राद्ध है। मृत्यु के पश्चात दसगात्र और षोडशी पिण्डदान तक मृत व्यक्ति की प्रे संज्ञा रहती है,सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।<br />
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पितृ पक्ष में भर में जो तर्पण किया जाता है,उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यायित होता है,पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो जौ या चावल का पिण्डदान देता उसमें रेतस का अंश लेकर चन्द्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है,ठीक अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है,१५ दिन पश्चात अपना अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है,इसलिये इसे पितृ पक्ष कहते है,अन्य दिनों में जो श्राद्ध किया जाता है,उसका सम्बन्ध सूर्य की सुषुम्ना नाडी से रहता है,जिसके द्वारा श्रद्धा मध्यान्हकाल में पृथ्वी पर आती है,और यहां से तत पितर का भाग लेजाती है,परन्तु पितृ पक्ष में पितृप्राण चन्द्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते है,वे स्वत: ही चन्द्र पिण्ड की परिवर्तित स्थिति के कारण पृथ्वी पर व्याप्त होते है,इसी कारण पितृपक्ष में तर्पण का इतना महात्म्य है।<br />
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शास्त्रों में निर्देश है,के माता पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मन्त्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है,वह उनको व्याप्त होता है,यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देवयोनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अमृत रूप में प्राप्त होता है,यदि उन्हे गन्धर्व लोक की प्राप्ति हो तो वह अन्न उन्हे भोग्यरूप में उन्हे प्राप्त होता है,यदि वह पशु योनि में हो तो वह अन्न उन्हे तृण रूप में प्राप्त होता है,यदि वह प्रेत योनि में प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे रुधिर रूप में प्राप्त होता है,यदि कर्मानुसार मनुष्य योनि प्राप्त हो तो वह अन्न उन्हे अन्न आदि के रूप में प्राप्त होता है।<br />
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श्राद्ध पक्ष की सूचना पाते ही सभी पितृ एक दूसरे का स्मरण करते हुये मनोमय रूप में श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है,और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन प्राप्त करते है,किंवदन्ति के अनुसार सूर्य कन्या राशि में आता है,तो पितर अपने पुत्र और पौत्रों के घर जाते है,विशेषत: अश्विन अमावस्या को उनका श्राद्ध नही करने पर वे श्राप देकर लौट जाते है,अत: उन्हे पत्र पुष्प फ़ल और जल तर्पण से यथा शक्ति उन्हे तृप्त करना चाहिये,हमे श्राद्ध विमुख नही होना चाहिये।<br />
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॥ कन्यागते सवितरि पितरौ यान्ति वै सुतान,अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:,श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥<br />
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मुख्यत: श्राद्ध दो प्रकार के होते है,एकोदिष्ट,और पार्वण,कालान्तर में चार प्रकार के श्राद्धों को मुख्यता दी गयी,वे है पार्वण,एकोदिष्ट वृद्धि और सपिण्डन,यही चार प्रकार के श्राद्ध समाज में प्रचलित है,वृद्धि श्राद्ध का स्पष्ट अर्थ नान्दिमुख श्राद्ध है,श्राद्धों की पूर्ण संख्या बारह है।<br />
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॥ नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिण्डनं,पार्वण चेति विज्ञेय गोष्ठ्यां शुद्ध्यर्थष्टमम,कर्मागं नवम प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम,यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्टयर्थ द्वादशं स्मृतम॥<br />
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इसमें नित्य श्राद्ध तर्पण और पंचमहायज्ञ के रूप में किया जाता है,नैमित्तिक श्राद्ध का ही नाम एकोदिष्ट है,यह किसी एक व्यक्ति के लिये किया जाता है,मृत्यु के बाद यही श्राद्ध किया जाता है,प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर भी एकोदिष्ट ही किया जाता है,काम्य श्राद्ध किसी कामना की पूर्ति की इच्छा से किया जाता है,वृद्धि श्राद्ध पुत्र जन्म के अवसर पर किया जाता है,इसी को नान्दि श्राद्ध भी कहते है,सपिण्डन श्राद्ध मृत्यु के पश्चात दसगात्र षोडशी के बाद किया जाता है इसके द्वारा म्रुत व्यक्ति को पितरों के साथ मिलाया जाता है।<br />
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प्रेत श्राद्ध में जो पिण्डदान करते है,उस पिण्ड को पितरों को दिये पिण्ड में मिला दिया जाता है,पार्वण श्राद्ध प्रतिवर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष में मृत्यु तिथि और अमावस्या के दिन किया जाता है,इसके अतिरिक्त अन्य सभी पर्वों पर भी यह श्राद्ध किया जाता है,गोष्ठी-श्राद्ध विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के लिये किया जाता है,इससे पितरों को तृप्ति होना भी स्वाभाविक है,शुद्धि-श्राद्ध शारीरिक मानसिक और अशौचादि अशुद्धि के निवारण हेतु किया जाता है,कर्मांग-श्राद्ध सोमयाग पुंसवन सीमन्तोन्नयन आदि के अवसर पर किया जाता है,दैविक-श्राद्ध देवताओं की प्रसन्नता के लिये किया जाता है,यात्रा श्राद्ध यात्रा के समय किया जाता है,पुष्टि-श्राद्ध धन धान्य समृद्धि हेतु किया जाता है।<br />
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हमारे धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के सम्बन्ध में इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है,कि इसके सामने अन्य समस्त धार्मिक कृत्य गौण लगते है,श्राद्ध के सूक्ष्मतम कृत्यों के सम्बन्ध में इतनी सूक्ष्म मीमांसा की गयी है,कि विचारशील मनुष्य इससे चमकृत हो उठते है,मनोविज्ञान के अध्ययन कर्ताओं के लिये श्राद्धीय कर्मकाण्ड विवेचन एवं अध्ययन हेतु उत्तम सामग्री है,शास्त्रकारों ने अपने पाण्डित्य और मनोविज्ञान का अद्वितीय रूप प्रकट किया है। नया मकान बनवाने पर नया कूप या पानी का साधन बनवाने पर,समृद्धि प्राप्त करने पर देश में कोई असाधारण घटना घटने पर शत्रुओं पर विजय प्राप्त होने पर पुत्र जन्म यज्ञोपवीत विवाह कन्यादान आदि अवसरों पर जब परिवार के सभी लोग मिलकर उत्सव मना रहे हों,मन उत्साहित हो उस समय अपने स्वर्गीय पूर्वजों की स्मृति होना नितांत आवश्यक है,उस समय यह इच्छा भी जागृत होती है,कि यदि इस अवसर पर माता पिता बडे भाई या अन्य कोई आत्मीय यहां होते तो वे सभी यह देखकर बहुत आनन्दित होते। जो हमारे सुख में अन्तरात्मा से सुखी तथा दुख में अन्तरात्मा से दुखी होते थे।<br />
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इस मनोवैज्ञानिक सत्य से इन्कार नही किया जा सकता कि मानसिक भावना सर्वशक्तिमान है,श्रद्धानत मन के समक्ष स्वर्गीय आत्मा सजीव और साकार हो उठती है,श्राद्ध में माता पिता आदि का ध्यान करना हमारा परम कर्तव्य है,अनेक श्रद्धालु लोगों का यह अनुभव है,कि श्राद्ध के समय उन्हे माता पिता या किसी अन्य आत्मीय की झलक दिखाई दी,भगवान राम ने जब अपने पिता का श्राद्ध किया था तब पिण्डदान के पश्चात भगवती सीता को दशरथ आदि पितरों के दर्शन करवाये थे,यह व्यर्थ कल्पना नही है,क्योंकि कालान्तर का मनोविज्ञान भी श्राद्ध के इस शाश्वत सत्य के निकट पहुंचता जा रहा है।<br />
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श्राद्ध के लिये आवश्यक वस्तुओं पर भी शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है,कौनसी वस्तु कैसी हो,कहां से ली जाये,व कब ली जाये,भोजन सामग्री कैसी हो,किन पात्रों में वे कैसी बनायी जायें,इस सभी महत्वपूर्ण तथ्यों का शास्त्रों में वर्णन किया गया है,फ़ल साग तरकारी आदि में कुछ वस्तुयें अश्राद्धीय बतायी गयी है,शास्त्रों में प्रत्येक वस्तु की शुद्धता व स्तर निर्धारित किया गया है,शास्त्रों द्वारा निर्धारित पुष्प व चन्दन का ही प्रयोग करना चाहिये।<br />
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इसके अलावा श्राद्ध में कैसे ब्राह्मणों को आमन्त्रित किस प्रकार किया जाये,कब आमन्त्रित किया जाये,निमत्रण के बाद ब्राह्मण किस प्रकार आचरण करें,और ब्राह्मण किस प्रकार भोजन करें,इन सभी बातों का शास्त्रों में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है,शास्त्रों में ब्राह्मण को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है,उत्तम,मध्यम और अधम,शास्त्रों में निषिद्ध ब्राह्मणों की सूची बहुत लम्बी है,शास्त्रों में कठोर आदेश है,कि अन्य किसी धार्मिक कृत्य में ब्राह्मणों की परीक्षा नही लेनी चाहिये,परन्तु श्राद्ध में प्रयत्नपूर्वक इस ब्राह्मण की परीक्षा लेनी चाहिये,और यह परीक्षा निमन्त्रण से पूर्व ही कर लेनी चाहिये।<br />
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॥ न ब्राह्मण परीक्षेत दैव कर्माणि धर्मवित,पित्रये कर्माणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नत:॥<br />
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॥ परकीये गृहे यस्तु स्वात्पितर्प ये द्यादि,तदभूमि स्वामि पितुभि: श्राद्धकर्म विहन्यते॥<br />
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घर में किये गये श्राद्ध का पुण्य तीर्थ-स्थल पर किये गये श्राद्ध से आठ गुना अधिक मिलता है।<br />
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॥तीर्थादष्टगुणं पुण्यं स्वगृहे ददत: शुभे॥<br />
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मृतक की अन्त्येष्टि और श्राद्ध को जो व्यवस्था कालान्तर से प्रचलित है,वह भी हमारे वेदों में वर्णित है,गृह्यसूत्रों में पितृ यज्ञ अथवा पितृ श्राद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है,आश्वलायन गृह्यसूत्र के सप्ततमी अष्टमी कण्डिका में विस्तारपूर्वक श्राद्ध-विधि वर्णित की गयी है,जो कि पाठन व मनन दोनों की द्रिष्टि से उत्तम है। अन्त्येष्टि विधि का वर्णन भी इसमें उपल्ब्ध है,चिता प्रज्वलित होने पर ऋग्वेद का यह मन्त्र पढा जाता है,"प्रेहि प्रेहि पथभि: पूर्वेभि:",अर्थात जिस मार्ग से पूर्वज गये है,तुम भी उसी मार्ग से जाओ,मूलत: वेदों में भी श्राद्ध और पिण्डदान का उल्लेख किया गया है,श्राद्ध में जो मन्त्र पढे जाते है,वे उनमे से कुछ इस प्रकार है," अत्र पितरों मादध्वं यथाभागमा वृषायव्यम",अर्थात पितृ यज्ञ में पित्रुगण उपस्तित हों,और अंशानुसार अपना अपना भाग ग्रहण करें। दूसरा इस प्रकार है,"नम: व: पितरो रसाय,नम: व: पितरो शोषाय",अर्थात पितरों को नमस्कार ! बसन्त ऋतु का उदय होने पर सभी पदार्थ रसवान हो,तुम्हारी कृपा से देश सुन्दर बसन्त ऋतु को प्राप्त हो,पितरों को नमस्कार ! ग्रीष्म ऋतु आने पर सर्व पदार्थ शुष्क हों,देश में ग्रीष्म ऋतु भली प्रकार व्याप्त हों"।<br />
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इसी प्रकार छ: ऋतुओं के सुन्दर और सुखद होने की कामना की गयी है,यह भी कहा गया है कि पितरो ! तुमने हमे गृहस्थ बना दिया है,अत: हम तुम्हारे लिये दातव्य वस्तु अर्पित कर रहे है।<br />
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वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया है,और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया,मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णयसिन्धु धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन परिवर्धन और परिवर्तन होता रहा है,नयी मान्यता नयी परिभाषा नयी विवेचना और तदुनुरूप नयी व्यवस्था समान होती रही है,दुर्भाग्य की बात यह है कि विदेशी आधिपत्य के बाद जब हिन्दू समाज पंगु हो गया,तब समाज का नियंत्रण विदेशी पद्धति और विधि विधान से होने लगा,तब युग की आवश्यकता के अनुरूप नयी परिभाषा व्यवस्थाक्रम भी अवरुद्ध हो गया,फ़लस्वरूप उपयोगितावाद मानव मन की तुष्टि अपने पुरातन संस्कारों से नही हो पा रही है,और वह वेदान्ती मानव संस्कार विहीन होता जा रहा है,जीवित माता पिता भाई बहिन रिस्तेदार भी आज मात्र उपयोगितावाद की कसौटी पर कसे जा रहे है,तब हमारी आस्था स्वयं पर से ही विचलित होती जा रही है,देश में व्याप्त समस्त अशान्ति विक्षोभ असन्तोष अनैतिकता आदि का मूल कारण यही है,यही कारण द्वापर में यादव कुल को समाप्त करने के लिये पैदा हुये थे,जब एक ऋषि से मजाक करने और उनकी सत्यता को परखने के चक्कर में एक युवक के पेट में लोहे की कढाही बांध कर पूंछा गया था कि इसके पेट में क्या है,और उन ऋषि को सत्यता का पता चलते ही उन्होने कह दिया था कि इसके पेट में वही है,जो इस कुल का विनाश करेगा,डर की बजह से उस कढाही को समुद्र के किनारे पर पत्थर पर घिसा गया,बचे हुये टुकडे को समुद्र में फ़ेंका गया,उस टुकडे को एक मछली के द्वारा निगला गया,बहेलिये के द्वारा उस मछली को मारा गया,और उस टुकडे को बहेलिये के द्वारा तीर पर लगाया गया,लोहे की घिसन एक घास के अन्दर व्याप्त हुई,और वही घिसन से व्याप्त घास जब यादवों के पर्व पर नहाने के समय एक दूसरे को मारने से सभी मरते गये,और अन्त में उसी कुल की बजह से भगवान श्रीकृष्ण को भी उसी बहेलिये के द्वारा बनाये गये उसी तीर का शिकार होकर इस संसार से जाना पडा था,उसी प्रकार से आजका मानव उसी प्रकार के तत्वों को पैदा किये जा रहा है,जो पूर्व की सहायतायें थीं,उनके द्वारा अभी तक मानव चलता रहा,और अब धीरे धीरे समाप्त होने के कारण वह हर तरीके से परेशान दिखाई दे रहा है,उसे रास्ता नही मिल रहा है,जिससे वह अपने और अपने कारकों को वह संभाल पाये,लेकिन जो सभी तरह से मोक्ष यानी शांति को देने वाला कारण है,वह केवल अपने ऊपर आदेश देने और शांति देने के लिये पूर्वज ही माने जा सकते हैं।<br />
किसे करना चाहिए श्राद्ध?<br />
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श्राद्ध विधि : ऐसे करें पितरों को तृप्त ----<br />
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हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का प्रमुख स्थान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान का अधिकारी माना गया है और नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर मनुष्य करता है।<br />
इसलिए यहां जानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है -<br />
- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।<br />
- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।<br />
- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।<br />
- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।<br />
- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।<br />
- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।<br />
- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।<br />
- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।<br />
- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।<br />
- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है।<br />
- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।<br />
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आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं -<br />
- सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।<br />
- घर आंगन में रंगोली बनाएं।<br />
- महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।<br />
- श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।<br />
- ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।<br />
- पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें।<br />
गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।<br />
- ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।<br />
- ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करें।<br />
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श्राद्ध-----<br />
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हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्घ्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे 'श्राद्ध' कहते हैं।<br />
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ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा यों दी है, 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।'[1] मिताक्षरा[2] ने श्राद्ध को यों परिभाषित किया है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्राद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।' कल्पतरु की परिभाषा यों है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।' रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है। याज्ञवल्क्यस्मृति[3] का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं। यह वचन एवं मनु[4] की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गोण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।<br />
श्राद्ध और पितर<br />
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श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस 'मृत व्यक्ति' के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की 'पितर' संज्ञा हो जाती है।<br />
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'मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।<br />
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,<br />
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।'<br />
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श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि ) दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिण्ड' तथा 'जल' आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।<br />
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श्राद्ध क्यों?<br />
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हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृध्दि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।<br />
श्राद्ध क्यों अनुपयोगी<br />
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नन्द पंण्डित कृत श्राद्धकल्प (लगभग 1600 ई.) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, श्राद्ध सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता। नन्द पंण्डित ने पूछा है–'श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है?' क्या इसीलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है? या इसीलिए की श्राद्ध से फलों की प्राप्ति नहीं होती? या इसीलिए की यह सिद्ध नहीं हुआ है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि पाते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि 'विज्ञ लोगों को पूरी शक्ति भर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए'–ऐसे वचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं। इसी प्रकार से दूसरा विरोध भी अनुचित है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति[5] ने श्राद्ध के फल भी घोषित किये हैं, यथा दीर्घ जीवन आदि। इसी प्रकार तीसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है। श्राद्ध कृत्यों में ऐसा नहीं है कि केवल 'देवदत्त' आदि नाम वाले पूर्वज ही प्राप्तिकर्ता हैं और वे पितृ, पितामह एवं प्रपितामह शब्दों से लक्षित होते हैं। प्रत्युत वे नाम वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों जैसे अधीक्षक देवताओं के साथ ही द्योतित होते हैं। जिस प्रकार देवदत्त आदि शब्दों से जो लक्षित होता है, वह न केवल शरीरों (जैसे की नाम दिये गये हैं) एवं आत्माओं का द्योतन करता है, प्रत्युत वह शरीरों से विशिष्टिकृत व्यक्तिगत आत्माओं का परिचायक है। इसी प्रकार पितृ आदि शब्द अधीक्षक देवताओं (वसु, रुद्र एवं आदित्य) के साथ 'देवदत्त' एवं अन्यों के सम्मिलित रूप का द्योतन करते हैं। अत: वसु आदि अधीक्षक देवतागण पुत्रों आदि द्वारा दिये गये भोजन-पान से संतुष्ट होकर उन्हें, अर्थात् देवदत्त आदि को संतुष्ट करते हैं और श्राद्धकर्ता को संतति, पुत्र, जीवन, सम्पत्ति आदि से फल देते हैं। जिस प्रकार गर्भवती माता देहाद (गर्भवती दशा में स्त्रियों की विशिष्ट इच्छा) रूप में अन्य लोगों से मधुर अन्न-पान आदि द्वारा स्वयं सन्तुष्टि प्राप्त करती है और गर्भस्थित बच्चे को भी संतुष्टि देती है तथा दोहद, अन्न आदि देने वाले को प्रत्युपकारक फल देती है, वैसे ही पितृ शब्द से द्योतित पिता, पितामह एवं प्रपितामह वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के रूप हैं, वे केवल मानव रूप में कहे जाने वाले देवदत्त आदि के समान नहीं हैं। इसी से ये अधिष्ठाता देवतागण श्राद्ध में किये गये दानादि के प्राप्तिकर्ता होते हैं, श्राद्ध से तर्पित (संतुष्ट) होते हैं और मनुष्य के पितरों को संतुष्ट करते हैं।[6] श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डयपुराण से 18 श्लोक उदधृत किये हैं, जिनमें बहुत से अध्याय 28 में पाये जाते हैं। जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता को इतस्तत: फैली हुई अन्य गायों में से चुन लेता है, उसी प्रकार श्राद्ध में कहे गये मंत्र प्रदत्त भोजन को पितरों तक ले जाते हैं।[7]<br />
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श्राद्ध करने को उपयुक्त व्यक्ति---<br />
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साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य ( पिण्डदान, अग्निहोम ) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।<br />
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श्राद्ध के लिए उचित बातें----<br />
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श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष, चावल, जौं, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल।<br />
तीन चीजें शुध्दिकारक हैं - पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल।<br />
तीन बातें प्रशसनीय हैं - सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।<br />
श्राद्ध में महत्वपूर्ण बातें - अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।<br />
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पिण्ड का अर्थ----<br />
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श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। हमारे देश में सूंघना यानी कि आधा भोजन करना माना जाता है। इस प्रकार श्राद्ध करने वाला पिण्डदान से पहले अपने पितरों की उपस्थिति को ख़ुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।<br />
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पिण्डदान का सिद्धान्त----<br />
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कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं। पुनर्जन्म[8] के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है। किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ 50 या 100 वर्षों के उपरान्त भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्यस्मृति, मार्कण्डेय पुराण[9], मत्स्य पुराण[10] एवं अग्नि पुराण[11] में आया है कि पितामह लोग (पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं। मत्स्यपुराण[12] में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। मत्स्य पुराण[13] में यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह, वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के समान रूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चरित मंत्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु[14] ने मत्स्य पुराण[15] के श्लोक मार्कण्डयपुराण में कहकर उदधृत किये हैं। विश्वरूप[16] ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है–यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है। अत: जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टी मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध खड़ा नहीं करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है–वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अत: पितर लोग जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं। विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्यकालीन लेखकों ने कहा है।<br />
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स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आर्शीवाद दें।<br />
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वेदान्त के अनुसार----<br />
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श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेयपुराण के आधार पर जो तर्क उपस्थित किये हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं और उनमें बहुत खींचातानी है। मार्कण्डेय एवं मत्स्य, ऐसा लगता है, वेदान्त के इस कथन के साथ हैं कि आत्मा इस शरीर को छोड़कर देव या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाती है। जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है।[17] इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि पितृगण विभिन्न स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूर ही स्थान पर किया जाता है। ऐसा मानना क्लिष्ट कल्पना है कि जहाँ दुष्कर्मों के कारण कोई पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, ऐसे स्थान विशेष में उगी हुई घास वही है, जो सैकड़ों कोस दूर श्राद्ध में किये गये द्रव्यों के कारण उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, यदि एक या सभी पितर पशु आदि योनि में परिवर्तित हो गये हैं, तो किस प्रकार अपनी सन्तानों को आयु, धन आदि दे सकते हैं? यदि यह कार्य वसु, रुद्र एवं आदित्य करते हैं तो सीधे तौर पर यह कहना चाहिए कि पितर लोग अपनी सन्तति को कुछ भी नहीं दे सकते।<br />
प्राचीन प्रथा<br />
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प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों कि त्यों रख लिया है। एक प्रकार से श्राऋ संस्था अति उत्तम हैं। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे। आर्यसमाज श्राद्ध प्रथा का विरोध करता है और ऋग्वेद में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियाँ दोनों सिद्धान्तों का पालन करती है। शतपथ ब्राह्मण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है–'यह तुम्हारे लिये है'। विष्णु पुराण[18] में आया है–'वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए पिण्ड रख सकता है।' मनु स्मृति[19] ने कहा है कि पिता वसु, पितामह रुद्र एवं आदित्य कहे गये हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति[20] ने यह व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में करना चाहिए।<br />
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ग्रन्थों के अनुसार----<br />
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पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।[21] बौधायन धर्मसूत्र[22] ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु पुराण[23] में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।[24] मनु[25] एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण[26] ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। विष्णु धर्मसूत्र[27] में आया है–"मृतात्मा श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है; चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है; जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।[28]<br />
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पाँच भाग<br />
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ब्रह्म पुराण[29] के मत से श्राद्ध का वर्णन पाँच भागों में किया जाना चाहिए। कैसे, कहाँ, कब, किसके द्वारा एवं किन सामग्रियों द्वारा। किन्तु इन पाँच प्रकारों के विषय में लिखने के पूर्व में हमें 'पितर' शब्द की अन्तर्निहित आदकालीन विचारधारा पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। हमें यह देखना है कि अत्यन्त प्राचीन काल में (जहाँ तक हमें साहित्य प्रकाश मिल पाता है) इस शब्द के विषय में क्या दृष्टिकोण था और इसकी क्या महत्ता थी।<br />
पितृ का अर्थ<br />
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'पितृ' का अर्थ है 'पिता', किन्तु 'पितर' शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-<br />
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व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज एवं<br />
मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक प्रथक लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।[30]<br />
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दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद[31] में उल्लेख है "वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की–'वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान (जहाँ गोयें छिपाकर रखी हुई थीं) को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।" ऋग्वेद[32] में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं।[33] वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।[34] वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व[35]; अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।[36] ऋग्वेद[37] में ऐसा कहा गया है–"जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।" अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे; नवग्व एवं दशग्व।[38] कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं[39] और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।[40] अंगिरस् लोग अग्नि[41] एवं स्वर्ग[42] के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।[43] वे सोमप्रेमी होते हैं[44], वे कुश पर बैठते हैं[45], वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं[46] और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं।[47] जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।[48] पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण[49] में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।[50]<br />
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ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।[51] मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।[52] यद्यपि ऋग्वेद[53] में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त[54] के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद[55] का कथन है–"हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।" ऋग्वेद[56] में आया है–'तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।' 'महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।[57]' तैत्तिरीय ब्राह्मण[58] में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद्[59] में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं। ऋग्वेद[60] में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया[61], या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है[62] या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है।[63] किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।[64]<br />
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पितरों की अन्य श्रेणियाँ----<br />
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पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।<br />
अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद[65] में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।"[66]<br />
पाश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है।<br />
उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[67]<br />
यहाँ तक की मनु[68] ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु[69] ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।<br />
इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण[70] में भी उल्लेख है।<br />
शातातपस्मृति[71] में पितरों की 12 कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा–पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख (3) एवं अश्रुमुख (3)। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।<br />
वायु पुराण[72], ब्रह्माण्ड पुराण[73], पद्म पुराण[74], विष्णुधर्मोत्तर[75] एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ हैं इन पर हम विचार नहीं करेंगे।<br />
स्कन्द पुराण[76] ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं।<br />
भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवत: यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है।<br />
मनु[77] ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।<br />
यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है (अर्थात् यह एक अर्थवाद है)।<br />
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देवों से भिन्न----<br />
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पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद[78] के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना:' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण[79] ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है[80] और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेद[81] में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता[82] में आया है–'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।' सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में।[83] शतपथ ब्राह्मण [84] ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- 'तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की तेज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।' देवों से उसने कहा- 'यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।' तैत्तिरीय ब्राह्मण[85] ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।<br />
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देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य---<br />
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कौशिकसुत्र[86] ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीर बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र[87] ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।[88] स्वयं ॠग्वेद[89] ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण[90] ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।<br />
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देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ----<br />
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यद्यपि देव एवं पितर पृथक कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। ऋग्वेद[91] ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋग्वेद[92] में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।[93] यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।[94] में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने[95] एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[96] ऋग्वेद[97] एवं अथर्ववेद[98] ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद[99] ने कहा है–'वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।' वाजसनेयी संहिता[100] में प्रसिद्ध मंत्र यह है–"हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए", जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।[101]<br />
<br />
भय-तत्त्व----<br />
<br />
इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था।[102] उदाहरणार्थ ॠग्वेद[103] में आया है–'(त्रुटि करने वाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।' ॠग्वेद[104] में हम पढ़ते हैं–"वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।" ॠग्वेद[105] में ऐसा आया है कि–'वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी (मंत्र) परिमार्जित की या गढ़ी।" यहाँ पितृ एवं ऋषि दो पृथक कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गई है।[106]<br />
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आवाहन----<br />
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वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'[107] शतपथ ब्राह्मण[108] ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।[109] कुछ[110] ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" शतपथब्राह्मण[111] में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु[112] तथा विष्णु पुराण[113] की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आहावान करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश[114] ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश[115] ब्रह्म पुराण ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण[116], ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।[117]<br />
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मूल एवं प्रकार----<br />
<br />
वैदिक साहित्य के उपरान्त की रचना में, विशेषत: पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, वायुपुराण[118] ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण[119] ने तथा वराह पुराण[120], पद्म पुराण[121] एवं ब्रह्मण्ड पुराण[122] ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति[123] ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।<br />
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श्राद्ध की महत्ता----<br />
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सूत्रकाल (लगभग ई. पू. 600) से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[124] ने अधोलिखित सूचना दी है- 'पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव लोग यज्ञों के कारण (पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये, किन्तु मनुष्य यहीं पर रह गये। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य को आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर लोग देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवानीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं।" इस अन्तिम सूत्र के कारण हरदत्त (आपस्तम्ब धर्मसूत्र के टीकाकार) एवं अन्य लोगों का कथन है कि श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना प्रमुख कृत्य है। ब्रह्माण्डपुराण[125] ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णुपुराण[126], वायु पुराण[127] एवं भागवत पुराण[128] ने श्राद्धदेव कहा है। इसी प्रकार शान्तिपर्व[129] एवं विष्णुधर्मोत्तर॰[130] में आया है कि श्राद्धप्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह और प्रपितामह को दिये गये तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आपस्तम्ब धर्मसूत्र के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्धप्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है।[131] किन्तु यह ज्ञातव्य है कि 'श्राद्ध' शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो अहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था)[132], महापितृयज्ञ (चातुर्मास्य या साकमेघ में सम्पादित) उपं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे। कठोपनिषद[133] में 'श्राद्ध' शब्द आया है; जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उदघोषित करता है, वह अमरता प्राप्त करता है।' 'श्राद्ध' शब्द के अन्य आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। अत्यन्त तर्कशील एवं सम्भव अनुमान यही निकाला जा सकता है कि पितरों से सम्बन्धित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किये जाते थे, अत: किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। किन्तु पितरों के सम्मान में किये गये कृत्यों की संख्या में जब अधिकता हुई तो श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।<br />
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श्राद्ध की प्रशस्तियाँ----<br />
<br />
श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। बौधायन धर्मसूत्र[134] का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। हरिवंश पुराण[135] में आया है–श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु[136] का कथन है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।[137] वायुपुराण[138] का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है।[139] श्राद्धसार[140] एवं श्राद्धप्रकाश[141] द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। शान्तिपर्व[142] में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। कूर्म पुराण में आया है कि "अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।"<br />
<br />
श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध----<br />
<br />
'श्राद्ध' शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द "श्रद्धा" से बना है। ब्रह्मपुराण (उपर्युक्त उद्धृत), मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। स्कन्द पुराण[143] का कथन है कि 'श्राद्ध' नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद[144] में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान ही सम्बोधित हैं।[145] कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के पृथक्-पृथक् रखे गये हैं।[146] तैत्तिरीय संहिता[147] में आया है–"बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की; देव मुझमें विश्वास (श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त करूँ।" निरुक्त[ में 'श्रत्' एवं 'श्रद्धा' का 'सत्य' के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. सं.[150] में कहा गया है कि प्रजापति ने 'श्रद्धा' को सत्य में और 'अश्रद्धा' को झूठ में रख दिया है, और वाज. सं.[151] में कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।<br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-18109556842879422772011-09-13T07:06:00.000-07:002011-09-13T08:01:40.531-07:00गरूड़ पुराण में श्राद्ध-महिमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBAgB5whwHR-x_lmkSiVhaZLyTY1zmhzcFgr3W1U34Uxi4QvvWD79ZYCSxi_YP4nhPN098rBA-JkYXy0AH0N7R4F6Sh4f5aEsyK8Th3Ww36Je5ITwdBGIDGalEtY8d_fdWGURaTisshm4/s1600/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A7.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBAgB5whwHR-x_lmkSiVhaZLyTY1zmhzcFgr3W1U34Uxi4QvvWD79ZYCSxi_YP4nhPN098rBA-JkYXy0AH0N7R4F6Sh4f5aEsyK8Th3Ww36Je5ITwdBGIDGalEtY8d_fdWGURaTisshm4/s1600/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A7.jpg" /></a></div><span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -श्राद्ध ।</span><br />
<div><span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (कुंवार) माह की अमावस्या तक के यह सोलह दिन श्राद्धकर्म के होते हैं। </span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">इस वर्ष श्राद्ध पक्ष की शुरुआत 12 सितंबर से होकर उसका समापन 27 सितंबर मंगलवार को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को होगा। महर्षि पाराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि से जो कर्म यव (तिल) व दर्भ (कुशा) के साथ मंत्रोच्चार के साथ श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह श्राद्ध होता है। </span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता व परिवार के मृतकों के नियमित श्राद्ध करने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है। श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहा गया है व पितृकर्म से तात्पर्य पितृपूजा भी है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्घ की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्घापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्घ है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेत का अंश लेकर वह चंद्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्घ करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्घकाल उपस्थित हो गया है, तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्घस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्घ नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्घ विमुख नहीं होना चाहिए।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"> </span></div><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">"अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः अमावस्या के दिन प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु-बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया-तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्ही पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम्।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">"समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।"</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">(10.57.59)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">जो लोग अपने पितृगण, देवगण, ब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करते हैं, वे सभी प्राणियों की अन्तरात्मा में समाविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं। शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य ब्रह्मपर्यंत समस्त चराचर जगत को प्रसन्न कर देता है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">हे आकाशचारिन् गरूड़ ! पिशाच योनि में उत्पन्न हुए पितर मनुष्यों के द्वारा श्राद्ध में पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरा जाता है उससे संतृप्त होते हैं। श्राद्ध में स्नान करने से भीगे हुए वस्त्रों द्वारा जी जल पृथ्वी पर गिरता है, उससे वृक्ष योनि को प्राप्त हुए पितरों की संतुष्टि होती है। उस समय जो गन्ध तथा जल भूमि पर गिरता है, उससे देव योनि को प्राप्त पितरों को सुख प्राप्त होता है। जो पितर अपने कुल से बहिष्कृत हैं, क्रिया के योग्य नहीं हैं, संस्कारहीन और विपन्न हैं, वे सभी श्राद्ध में विकिरान्न और मार्जन के जल का भक्षण करते हैं। श्राद्ध में भोजन करने के बाद आचमन एवं जलपान करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा जो जल ग्रहण किया जाता है, उस जल से पितरों को संतृप्ति प्राप्त होती है। जिन्हें पिशाच, कृमि और कीट की योनि मिली है तथा जिन पितरों को मनुष्य योनि प्राप्त हुई है, वे सभी पृथ्वी पर श्राद्ध में दिये गये पिण्डों में प्रयुक्त अन्न की अभिलाषा करते हैं, उसी से उन्हें संतृप्ति प्राप्त होती है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वेश्यों के द्वारा विधिपूर्वक श्राद्ध किये जाने पर जो शुद्ध या अशुद्ध अन्न जल फेंका जाता है, उससे उन पितरों की तृप्ति होती है जिन्होंने अन्य जाति में जाकर जन्म लिया है। जो मनुष्य अन्यायपूर्वक अर्जित किये गये पदार्थों के श्राद्ध करते हैं, उस श्राद्ध से नीच योनियों में जन्म ग्रहण करने वाले चाण्डाल पितरों की तृप्ति होती है।</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">हे पक्षिन् ! इस संसार में श्राद्ध के निमित्त जो कुछ भी अन्न, धन आदि का दान अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा किया जाता है, वह सब पितरों को प्राप्त होता है। अन्न जल और शाकपात आदि के द्वारा यथासामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता है, वह सब पितरों की तृप्ति का हेतु है। (अनुक्रम)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif;">(गरूड़ पुराण)</span></div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-86496145915961702122011-08-08T23:10:00.000-07:002011-08-08T23:10:50.262-07:00ज्योतिष और वेद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYkVffatM3kDX0WigsC80hhF_5iF5mv-nAd_HrVCmTnytpcf__bkSx2XnnBTAr1lo94DbvR-fMa8L_izwaIfz1UhqMP0j1ZbgvwHQJMjvPb3X8uZ_rUeTxhx_a2u-P3dIZtgYWMTTp-dQ/s1600/ved.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYkVffatM3kDX0WigsC80hhF_5iF5mv-nAd_HrVCmTnytpcf__bkSx2XnnBTAr1lo94DbvR-fMa8L_izwaIfz1UhqMP0j1ZbgvwHQJMjvPb3X8uZ_rUeTxhx_a2u-P3dIZtgYWMTTp-dQ/s320/ved.png" width="320" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div>वेद का छठा अंग ज्योतिष है , सूर्य-चंद्रमा ही पिता और माता है ।<br />
वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष- इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।<br />
विज्ञान जहां समाप्त होता है, वहां से ज्योतिष शुरू होता है, यह वेद सम्मत विज्ञान है। ज्योतिष लोगों को अंधविश्वास की ओर नहीं ले जाता, बल्कि लोगों को जागरूक करता है।<br />
<br />
ज्योतिष समय का विज्ञान है, इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, योग और कर्म इन पांच चीजों का अध्ययन कर भविष्य में होने वाली घटनाओं की जानकारी दी जाती है। यह किसी जाति या धर्म को नहीं मानता। वेद भगवान भी ज्योतिष के बिना नहीं चलते।<br />
<br />
वेद के छः अंग हैं, जिसमें छठा अंग ज्योतिष है। हमने पूर्व जन्म में क्या किया और वर्तमान में क्या कर रहे हैं, इसके आधार पर भविष्य में क्या परिणाम हो सकते हैं, इसकी जानकारी ज्योतिष के द्वारा दी जाती है।<br />
<br />
ग्रहों से ही सब कुछ संचालित होते हैं। इसी से ऋतुएं भी बनती हैं। सूर्य पृथ्वी से दूर गया तो ठंड का मौसम आ गया और पास आने पर गर्मी बढ़ गई।<br />
<br />
सूर्य आत्मा के रूप में विराजमान हैं, परिवार में इसे पिता का स्थान प्राप्त है। इसी तरह चंद्रमा मन पर विराजमान रहता है, परिवार में इसे मां का दर्जा प्राप्त है। इसलिए जिस व्यक्ति ने मां-पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया समझो वह सूर्य और चंद्रमा का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया। मंगल शरीर की ऊर्जा है, शरीर में पर्याप्त ऊर्जा है तो आपकी सक्रियता दिखेगी। जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या नहीं है समझिए, उसका बुध मजबूत है, उसे बुध का आर्शीवाद प्राप्त है। इसी तरह शुक्र परिवार में पत्नी की तरह और शरीर में शुक्राणु के रूप में मौजूद रहता है। जिस व्यक्ति का स्नायु तंत्र कमजोर है, नसें कमजोर हैं, स्पाईन का दर्द है समझो उसके ऊपर शनिदेव का प्रकोप है।<br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-82954670996757164102011-08-03T02:34:00.000-07:002011-08-08T23:13:20.447-07:00हे कृष्ण गोविंद हरे मुरारे , हे नाथ नारायण वासुदेव…<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><br />
<br />
<br />
<br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjC0Eyr8nQJ0kid10y4dA6lIacW3VRM-vEyFhw6xJg6BnECyb0pTf-KCIOFggEKhVZJrp099nCC3iYHX-dTIjmLHa-2G_3lrjY1LVOiKhBhslw3sGH-7CQ-8VeMDYh3QraVnrELq3E8O9Y/s1600/radha-krishan+large.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjC0Eyr8nQJ0kid10y4dA6lIacW3VRM-vEyFhw6xJg6BnECyb0pTf-KCIOFggEKhVZJrp099nCC3iYHX-dTIjmLHa-2G_3lrjY1LVOiKhBhslw3sGH-7CQ-8VeMDYh3QraVnrELq3E8O9Y/s400/radha-krishan+large.JPG" width="400" /></a></div></div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-31242040338062281962011-08-02T22:42:00.000-07:002011-08-02T22:44:01.320-07:00श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLZe6dTKopKRcBjCcoYj2Rm4ccSqrhPf96_lqcSmotQB7ufs3NciVeMslATbiABflMhs7cck2m6y-PLp_UZWW78rF_oSj_ZB2MSxJyRm8FFSXVEvPoFrgPLa8zpKQ1vIjKeBAp-in5i0M/s1600/%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLZe6dTKopKRcBjCcoYj2Rm4ccSqrhPf96_lqcSmotQB7ufs3NciVeMslATbiABflMhs7cck2m6y-PLp_UZWW78rF_oSj_ZB2MSxJyRm8FFSXVEvPoFrgPLa8zpKQ1vIjKeBAp-in5i0M/s400/%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE.jpg" width="268" /></a></div> श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व<br />
<br />
कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ।<br />
<br />
स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।<br />
<br />
गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--<br />
<br />
अथ ध्यानम्<br />
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं<br />
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।<br />
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं<br />
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।<br />
भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।<br />
<br />
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-<br />
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।<br />
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-<br />
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।<br />
भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।<br />
<br />
<br />
श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करें<br />
<br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-49975867828818422092011-08-02T22:35:00.000-07:002011-08-02T23:09:20.712-07:00श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय के अट्ठारह अध्याय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirQ2b2arrXXhyE5bv35vxBpKfjmTQy3CkG0uUaqK_Rn5LkB_zBxUoTCWhe5EYGKuguw_WStcPRzYX2aj0h47c4c7zc2QZImmvY7VoqQuJsgbadwDjy-mdcqygbMRGr2YkNWcxW1TaXE4o/s1600/shrimad-bhagvad-geeta.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirQ2b2arrXXhyE5bv35vxBpKfjmTQy3CkG0uUaqK_Rn5LkB_zBxUoTCWhe5EYGKuguw_WStcPRzYX2aj0h47c4c7zc2QZImmvY7VoqQuJsgbadwDjy-mdcqygbMRGr2YkNWcxW1TaXE4o/s400/shrimad-bhagvad-geeta.gif" width="266" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br />
</div><br />
श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय<br />
<br />
<br />
1.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> अर्जुनविषादयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 2.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> सांख्ययोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 3.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> कर्मयोग<br />
4.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> ज्ञानकर्मसंन्यासयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>5.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> कर्मसंन्यासयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 6.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> आत्मसंयमयोग<br />
7.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> ज्ञानविज्ञानयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 8.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> अक्षरब्रह्मयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 9.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> राजविद्याराजगुह्ययोग<br />
10.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> विभूतियोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 11. विश्वरूपदर्शनयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>12.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> भक्तियोग<br />
13.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>14.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> गुणत्रयविभागयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 15.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> पुरुषोत्तमयोग<br />
16.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> दैवासुरसम्पद्विभागयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>17.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> श्रद्धात्रयविभागयोग<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> 18.<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> मोक्षसंन्यासयोग<br />
<div><br />
</div></div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-44664024072146899152011-07-11T04:48:00.000-07:002011-07-11T05:24:45.433-07:00GURU PURNIMA गुरु पूर्णिमा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnZgJfjVQLaWrO-NTJYyy_5O34qIOpO6SUtkKe6RUY_W1W9Ek-zwl8ApBaJPWIUSAXhChsp8WIgSTUTiDncFktzZmUkaZAoDCmSggV5TQstnaeO_bLs4ic10VPR3hbbi9aL3wd1n_exyw/s1600/guru-purnima-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="203" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnZgJfjVQLaWrO-NTJYyy_5O34qIOpO6SUtkKe6RUY_W1W9Ek-zwl8ApBaJPWIUSAXhChsp8WIgSTUTiDncFktzZmUkaZAoDCmSggV5TQstnaeO_bLs4ic10VPR3hbbi9aL3wd1n_exyw/s320/guru-purnima-1.jpg" width="320" /></a></div><br />
<br />
विक्रम सम्वत् 2068<br />
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा , गुरू पूर्णिमा 15th July 2011<br />
<br />
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः ।<br />
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥<br />
<br />
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं।<br />
इस दिन गुरु पूजा का विधान है। भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाया जाता है। इस दिन महाभारत ग्रन्थ के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी का जन्मदिन है। उन्होंने चारो वेदों की रचना की थी , उन्हें आदि गुरु भी कहा जाता है। उनके सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।<br />
<br />
शास्त्रों में 'गु' का अर्थ अंधकार या मूल अज्ञान बताया गया है और 'रु' का अर्थ उसका निरोधक बताया गया है । अंधकार को मिटा कर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। इस दिन सुबह घर की सफ़ाई स्नान आदि के बाद घर में किसी पवित्र स्थान पर सफेद वस्त्र फैलाकर उस पर बारह-बारह रेखाएँ बनाकर व्यास-पीठ बनाई जातीं हैं ।<br />
<br />
'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से संकल्प लेते हैं । इसके बाद दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ा जाता है । तदुपरांत ब्रह्माजी, व्यासजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा आवाहन आदि किया जाता है, फिर अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा-अर्चना कर उन्हें दक्षिणा दी जाती है ।<br />
<br />
प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरू का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतार्थ होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरु को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह-जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।<br />
<br />
इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही सबके लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। इस दिन गुरुओं के आशिर्वाद प्राप्त करने, दर्शन -पूजन और सेवा करना अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है. गुरु का आशिर्वाद लेने से शिष्य का आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त होता है । <br />
गुरु और शिष्य का सम्बन्ध विषुद्ध रूप से आध्यात्मिक संबंध होता है, जिसमें दोनो की उम्र से कोई अन्तर नहीं पड़ता । गुरु और शिष्य का यह सम्बन्ध भक्ति और साधना की परिपक्वता और प्रौढ़ता पर आधारित होता है । शिष्य में सदा यह भावना काम करती है कि गुरु की कृपा से मेरा आध्यात्मिक विकास हो और कृपा के अक्षय भंडार गुरु में तो सदा यह कृपापूर्ण भाव रहता ही है कि मेरे इस शिष्य का आत्मिक कल्याण हो जाए ।<br />
गुरुपूजा का दिन गुरु और शिष्य के मध्य ऐसे आध्यात्मिक संबंध को वन्दन करने का दिन है । यदि जगत् में सद्गुरु ने शिष्यों को उनके मनुष्य होने का महत्व तथा उन्हें अपने अन्तस्थ आत्मा को अनुभव कराने का उपाय न बतलाया होता तो अपनी अन्तरात्मा के दर्शन ही नहीं होते । <br />
<br />
गुरु पूर्णिमा पर कृ्षि महत्व<br />
<br />
गुरु पूर्णिमा यानि व्यास पूर्णिमा के दिन प्रकृ्ति की वायु परीक्षा की जाती है । यह परीक्षा माँनसून के दौरान कृ्षि और बागवानी कार्यो में महत्वपूर्ण सिद्ध होती है । व्यास पूर्णिमा के दिन को वायु परिक्षण के लिये शुभ माना जाता है । इस दिन मानसून परीक्षा कर आने वाली फसल का पूर्वानुमान लगाया जाता है । और अगले चार माहों में सूखा या बाढ आने की स्थिति का पूर्वानुमान लगाया जाता है । भारत प्राचीन काल से ही कृषि प्रधान देश है. ऎसे में इस दिन की महत्वता और भी बढ जाती है ।<br />
<br />
महर्षि व्यास जयन्ती मेला -<br />
<br />
महर्षि व्यास ने महान ग्रन्थ महाभारत की रचना की थी (Maharshi Vyas wrote the great Scriptue "Mahabharata") महाशास्त्र महाभारत के अलावा उन्होने अट्ठारह पुराण, श्री मदभागवत, ब्रह्मासूत्र, मीमांसा आदि जैसे महान ग्रन्थों की रचना कि थी । महर्षि व्यास ज्योतिष के पितामह ऋषि पराशर के पुत्र थे । "श्रीमदभागवत गीता" महाभारत का ही एक भाग है । इस दिन देश के कई भागों में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मेला लगता है।<br />
<br />
गुरु पूर्णिमा महिमा<br />
<br />
अपने गुणों व अपनी योग्यताके कारण गुरु को ईश्वर से भी उंचा स्थान दिया गया है । ईश्वर के अनेक रुपों से ऊपर बी गुरु को ही माना गया है । गुरु को ब्रह्मा कहा गया है । गुरु अपने शिष्य को नया जन्म देता है । गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वे अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करते है ।<br />
भारत में गुरुओं को न केवल आध्यात्मिक महत्व दिया गया है, बल्कि उनका महत्व धार्मिक और राजनैतिक विषयों में भी सदा से ही बना रहा है। यहां पर गुरुओं ने देश को संकट के समय में अपने मार्गदर्शन से नया रास्ता दिखाया है। गुरु केवल एक शिक्षक ही नहीं है, अपितु वह व्यक्ति को जीवन के हर संकट से बाहर निकलने का मार्ग बताने वाला मार्गदर्शक भी है। <br />
<br />
<div><br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-22538922183570932152011-07-08T11:00:00.000-07:002011-07-08T11:00:09.567-07:00ब्राह्मण<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyPtwGx2ZkQfHxn5ZUhqIvJ0PiLj3KjKcgIMg5TPrKZfjYjY3_NtOEXZzt_xb3IaI6KVZImT0gg2rspIYtkwTll9zBtZY9lbPZT_SwyfIv1jkMkifN9s1yVP1Ves72f5GNkBaT6NwgTuU/s1600/brahman.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyPtwGx2ZkQfHxn5ZUhqIvJ0PiLj3KjKcgIMg5TPrKZfjYjY3_NtOEXZzt_xb3IaI6KVZImT0gg2rspIYtkwTll9zBtZY9lbPZT_SwyfIv1jkMkifN9s1yVP1Ves72f5GNkBaT6NwgTuU/s1600/brahman.jpg" /></a></div><br />
<br />
<br />
ब्राह्मण को विद्वान, सभ्य और शिष्ट माना जाता है। विद्वान, शिक्षक, पंडित,<br />
<br />
बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक तथा ज्ञान-अन्वेषी ब्राह्मणों की श्रेणी में आते थे |<br />
यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: -- ब्राह्मण वह है जो<br />
<br />
ब्रह्म ( अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान ) को जानता है। अतः ब्राह्मण का अर्थ<br />
<br />
है - "ईश्वर ज्ञाता" | किन्तु हिन्दू समाज में ऐ तिहासिक स्थिति यह रही है कि<br />
<br />
पारंपरिक पुजारी तथा पंडित ही ब्राह्मण होते हैं ।<br />
किन्तु आजकल बहुत सारे ब्राह्मण धर्म-निरपेक्ष व्यवसाय करते हैं और उनकी<br />
<br />
धार्मिक परंपराएं उनके जीवन से लुप्त होती जा रही हैं | यद्यपि भारतीय जनसंख्या<br />
<br />
में ब्राह्मणों का प्रतिशत कम है, तथापि धर्म, संस्कॄति, कला, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान<br />
<br />
तथा उद्यम के क्षेत्र में इनका योगदान अपरिमित है |<br />
<br />
इतिहास<br />
<br />
ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है|<br />
<br />
"मनु-स्मॄति" के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है | ब्राह्मण व्यवहार का<br />
<br />
मुख्य स्रोत वेद हैं | ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं | पारंपरिक<br />
<br />
तौर पर यह विश्वास है कि वेद अपौरुषेय ( किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे )<br />
<br />
तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है |<br />
<br />
वेदों को श्रुति माना जाता है ( श्रवण हेतु , जो मौखिक परंपरा का द्योतक है ) |<br />
धार्मिक व सांस्कॄतिक रीतियों एवम् व्यवहार में विवधताओं के कारण और<br />
<br />
विभिन्न वैदिक विद्यालयों के उनके संबन्ध के चलते, ब्राह्मण समाज विभिन्न<br />
<br />
उपजातियों में विभाजित है | सूत्र काल में, लगभग १००० ई.पू से २०० ई.पू<br />
<br />
,वैदिक अंगीकरण के आधार पर, ब्राह्मण विभिन्न शाखाओं में बटने लगे |<br />
<br />
प्रतिष्ठित विद्वानों के नेतॄत्व में, एक ही वेद की विभिन्न नामों की पृथक-पृथक<br />
<br />
शाखाएं बनने लगीं | इन प्रतिष्ठित ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है |<br />
<br />
प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है | सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले<br />
<br />
सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं , आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू<br />
<br />
विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है | सूत्र सामान्यतया<br />
<br />
पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं |<br />
ब्राह्मण शास्त्रज्ञों में प्रमुख हैं अग्निरस , अपस्तम्भ , अत्रि , बॄहस्पति , बौधायन ,<br />
<br />
दक्ष , गौतम , वत्स,हरित , कात्यायन , लिखित , मनु , पाराशर , समवर्त ,<br />
<br />
शंख , शत्तप , ऊषानस , वशिष्ठ , विष्णु , व्यास , यज्ञवल्क्य तथा यम | ये<br />
<br />
इक्कीस ऋषि स्मॄतियों के रचयिता थे | स्मॄतियां में सबसे प्राचीन हैं अपस्तम्भ ,<br />
<br />
बौधायन , गौतम तथा वशिष्ठ |<br />
<br />
ब्राह्मण निर्धारण - जन्म या कर्म से<br />
<br />
ब्राह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पे ही होने लगा है | वैदिक<br />
<br />
शास्त्रों मैं साफ़ - साफ़ बताया है<br />
जन्मना जायते शूद्रः<br />
संस्कारात् भवेत् द्विजः |<br />
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः<br />
ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः |<br />
जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पठान-पाठन से विप्र और<br />
<br />
जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है |<br />
ब्राह्मण का स्वभाव<br />
<br />
शमोदमस्तपः शौचम् क्षांतिरार्जवमेव च |<br />
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||<br />
चित्त पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा<br />
<br />
ज्ञान-विज्ञान में विश्वास | वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शूद्र कहा है । यहाँ ब्राह्मण<br />
<br />
को क्रियासे बताया है । ब्रह्म का ज्ञान जरुरी है । केवल ब्राहमण के वहा पैदा होने<br />
<br />
से ब्राह्मण नहीं होता ।<br />
ब्राह्मण के कर्त्तव्य<br />
<br />
निम्न श्लोकानुसार एक ब्राह्मण के छह कर्त्तव्य इस प्रकार हैं<br />
अध्यापनम् अध्ययनम् यज्ञम् यज्ञानम् तथा | ,<br />
दानम् प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयात ||<br />
शिक्षण, अध्ययन, यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना तथा दान देना ब्राह्मण के<br />
<br />
छह कर्त्तव्य हैं |<br />
ब्राह्मण का व्यवहार<br />
<br />
ब्राह्मण हिन्दू धर्म के नियमों का पालन करते हैं जैसे वेदों का आज्ञापालन , यह<br />
<br />
विश्वास कि मोक्ष तथा अन्तिम सत्य की प्राप्ति के अनेक माध्यम हैं , यह कि<br />
<br />
ईश्वर एक है किन्तु उनके गुणगान तथा पूजन हेतु अनगिनत नाम तथा स्वरूप हैं<br />
<br />
जिनका कारण है हमारे अनुभव, संस्कॄति तथा भाषाओं में विविधताए | ब्राह्मण<br />
<br />
सर्वेजनासुखिनो भवन्तु ( सभी जन सुखी तथा समॄद्ध हों ) एवम् वसुधैव<br />
<br />
कुटुम्बकम ( सारी वसुधा एक परिवार है ) में विश्वास रखते हैं | सामान्यत:<br />
<br />
ब्राह्मण केवल शाकाहारी होते हैं (बंगाली, उडिया तथा कुछ अन्य ब्राह्मण तथा<br />
<br />
कश्मीरी पन्डित इसके अपवाद हैं) |<br />
दिनचर्या<br />
हिन्दू ब्राह्मण अपनी धारणाओं से अधिक धर्माचरण को महत्व देते हैं | यह<br />
<br />
धार्मिक पन्थों की विशेषता है | धर्माचरण में मुख्यतया है यज्ञ करना | दिनचर्या<br />
<br />
इस प्रकार है - स्नान , सन्ध्यावन्दनम् , जप , उपासना , तथा अग्निहोत्र |<br />
<br />
अन्तिम दो यज्ञ अब केवल कुछ ही परिवारों में होते हैं | ब्रह्मचारी अग्निहोत्र यज्ञ<br />
<br />
के स्थान पर अग्निकार्यम् करते हैं | अन्य रीतियां हैं अमावस्य तर्पण तथा श्राद्ध<br />
<br />
|<br />
देखें : नित्य कर्म तथा काम्य कर्म<br />
संस्कार<br />
<br />
ब्राह्मण अपने जीवनकाल में सोलह प्रमुख संस्कार करते हैं | जन्म से पूर्व<br />
<br />
गर्भधारण , पुन्सवन (गर्भ में नर बालक को ईश्वर को समर्पित करना ) ,<br />
<br />
सिमन्तोणणयन ( गर्भिणी स्ज्ञी का केश-मुण्डन ) | बाल्यकाल में जातकर्म (<br />
<br />
जन्मानुष्ठान ) , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्रासन , चूडकर्ण , कर्णवेध | बालक<br />
<br />
के शिक्षण-काल में विद्यारम्भ , उपनयन अर्थात यज्ञोपवीत् , वेदारम्भ , केशान्त<br />
<br />
अथवा गोदान , तथा समवर्तनम् या स्नान ( शिक्षा-काल का अन्त ) | वयस्क<br />
<br />
होने पर विवाह तथा मृत्यु पश्चात अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार हैं |<br />
सम्प्रदाय<br />
<br />
दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन सम्प्रदाय हैं - स्मर्त सम्प्रदाय , श्रीवैष्णव<br />
<br />
सम्प्रदाय तथा माधव सम्प्रदाय |<br />
<div><br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-68224312585203115252011-05-30T01:35:00.000-07:002011-05-30T01:35:46.271-07:00Om Namo Bhagwate Vasudevay - Pandit Jasraj 1/3<iframe width="425" height="344" src="http://www.youtube.com/embed/zBIS7mprtjw?fs=1" frameborder="0" allowfullscreen=""></iframe>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-28628764045761145802011-05-30T00:34:00.000-07:002011-05-30T00:34:27.154-07:00Pandit Rajan Sajan Mishra - Jai shiv shankar jai gangadhar<iframe width="425" height="344" src="http://www.youtube.com/embed/84OKle256kc?fs=1" frameborder="0" allowfullscreen=""></iframe>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-59884834943774575302011-05-29T06:41:00.000-07:002011-05-29T06:41:32.670-07:00बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है पंचमुखी हनुमान की साधना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLiQn1iZUAjTAKYSnaWIgppxzNxA6GE7OkikIIZDWjHroIjDNimdjWIw1OG99Kp-aAC0kiSOjAMJCp5khzEBZ1WgTwHEtHTtb62iw565ms0Xp8Yp4t0AHEe8eqdNMN1Iw2Y4727yMRYHM/s1600/panchmukhi+hanuman.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLiQn1iZUAjTAKYSnaWIgppxzNxA6GE7OkikIIZDWjHroIjDNimdjWIw1OG99Kp-aAC0kiSOjAMJCp5khzEBZ1WgTwHEtHTtb62iw565ms0Xp8Yp4t0AHEe8eqdNMN1Iw2Y4727yMRYHM/s320/panchmukhi+hanuman.jpg" width="245" /></a></div><br />
<br />
श्री हनुमान रूद्र के अवतार माने जाते हैं। आशुतोष यानि भगवान शिव का अवतार होने से उनके समान ही श्री हनुमान थोड़ी ही भक्ति से जल्दी ही हर कलह, दु:ख व पीड़ा को दूर कर मनोवांछित फल देने वाले माने जाते हैं। श्री हनुमान चरित्र गुण, शील, शक्ति, बुद्धि कर्म, समर्पण, भक्ति, निष्ठा, कर्तव्य जैसे आदर्शों से भरा है। इन गुणों के कारण ही भक्तों के ह्रदय में उनके प्रति गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है, जो श्री हनुमान को सबसे अधिक लोकप्रिय देवता बनाती है।<br />
<br />
श्री हनुमान के अनेक रूपों में साधना की जाती है। लोक परंपराओं में बाल हनुमान, भक्त हनुमान, वीर हनुमान, दास हनुमान, योगी हनुमान आदि प्रसिद्ध है। किंतु शास्त्रों में श्री हनुमान के एक चमत्कारिक रूप और चरित्र के बारे में लिखा गया है। वह है पंचमुखी हनुमान।<br />
<br />
धर्मग्रंथों में अनेक देवी-देवता एक से अधिक मुख वाले बताए गए हैं। किंतु पांच मुख वाले हनुमान की भक्ति न केवल लौकिक मान्यताओं में बल्कि धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है। जानते हैं पंचमुखी हनुमान के स्वरुप और उनसे मिलने वाले शुभ फलों को -<br />
<br />
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार पांच मुंह वाले दैत्य ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पा लिया कि उसे अपने जैसे ही रूप वाले से मृत्यु प्राप्त हो। उसने जगत को भयंकर पीड़ा पहुंचाना शुरु किया। तब देवताओं की विनती पर श्री हनुमान से पांच मुखों वाले रूप में अवतार लेकर उस दैत्य का अंत कर दिया।<br />
<br />
श्री हनुमान के पांच मुख पांच दिशाओं में हैं। हर रूप एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी यानि तीन आंखों और दो भुजाओं वाला है। यह पांच मुख नरसिंह, गरुड, अश्व, वानर और वराह रूप है।<br />
<br />
पंचमुखी हनुमान का पूर्व दिशा में वानर मुख है, जो बहुत तेजस्वी है। जिसकी उपासना से विरोधी या दुश्मनों को हार मिलती है।<br />
<br />
पंचमुखी हनुमान का पश्चिमी मुख गरूड का है, जिसके दर्शन और भक्ति संकट और बाधाओं का नाश करती है।<br />
<br />
पंचमुखी हनुमान का उत्तर दिशा का मुख वराह रूप होता है, जिसकी सेवा-साधना अपार धन, दौलत, ऐश्वर्य, यश, लंबी आयु, स्वास्थ्य देती है।<br />
<br />
पंचमुखी हनुमान का दक्षिण दिशा का मुख भगवान नृसिंह का है। इस रूप की भक्ति से जिंदग़ी से हर चिंता, परेशानी और डर दूर हो जाता है। पंचमुखी हनुमान का पांचवा मुख आकाश की ओर दृष्टि वाला होता है। यह रूप अश्व यानि घोड़े के समान होता है। श्री हनुमान का यह करुणामय रूप होता है, जो हर मुसीबत में रक्षा करने वाला माना जाता है।<br />
<br />
पंचमुख हनुमान की साधना से जाने-अनजाने हुए सभी बुरे कर्म और विचारों के दोषों से छुटकारा मिलता है। वही धार्मिक रूप से ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों की कृपा भी प्राप्त होती है। इस तरह श्री हनुमान का यह अद्भुत रूप शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आध्यात्मिक आनंद और सुख देने वाला माना गया है ।<br />
<div><br />
</div></div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-8819924592262235532011-05-17T20:19:00.000-07:002011-05-17T20:19:10.409-07:00नारद जी की जयंती पर विशेष (जयंती 19 मई)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEia_aexasc20jxpY_7wkZZIC5qIQSedCn1nCr0e9AqPbp4UlNbw-wg2CdX8NMJZ2wQSrJbigaVrRo_pw2tM4DQw7WHX7ch0oEFzaU7Z_K4BVJaaGEEvwFr8iFvescHrZhC-ma1zgc1QK90/s1600/NARAD+JI+1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEia_aexasc20jxpY_7wkZZIC5qIQSedCn1nCr0e9AqPbp4UlNbw-wg2CdX8NMJZ2wQSrJbigaVrRo_pw2tM4DQw7WHX7ch0oEFzaU7Z_K4BVJaaGEEvwFr8iFvescHrZhC-ma1zgc1QK90/s400/NARAD+JI+1.jpg" width="248" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> ब्रह्मर्षि नारद जी</span></b></td></tr>
</tbody></table><br />
<br />
<br />
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि जी, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों मे से एक माने जाते है।<br />
देवर्षि नारद धर्म के प्रचार-प्रसार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का "मन" कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - " देवर्षीणाम्चनारद:।" देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।<br />
वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी,स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।<br />
इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य,क्रतु, पुलह,प्रत्यूष,प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारद जी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारद जी में पूर्णत:घटित होते हैं।<br />
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारदजी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारदजी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रंथ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रंथ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारदजी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।<br />
</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-49265134305143758902011-05-16T21:10:00.000-07:002011-05-16T21:44:21.399-07:00पीपल का पूजन देता है सुख, समृद्धि और वैभव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCdWzDnk1_iq-A0Vh1YAhoB4rM8P5TyupvNLVKF3rfDGU1gQzdncKQiHGoM1-CPpkQjswmPoO7Yt5r8sCgOTE-2foAQopYdc4j9qDmwNT99wDUqEjZYYD6yOA10pfJx1GzwdWi0DsJAfE/s1600/%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AA%25E0%25A4%25B2+%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2587%25E0%25A5%259C.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCdWzDnk1_iq-A0Vh1YAhoB4rM8P5TyupvNLVKF3rfDGU1gQzdncKQiHGoM1-CPpkQjswmPoO7Yt5r8sCgOTE-2foAQopYdc4j9qDmwNT99wDUqEjZYYD6yOA10pfJx1GzwdWi0DsJAfE/s320/%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AA%25E0%25A4%25B2+%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2587%25E0%25A5%259C.JPG" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">‘अश्वत्थ सर्वा वृक्षाणां देवषीणां च नारद।।’</span></td></tr>
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पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती।पीपल की सेवा-पूजा करने वाले सद्गति प्राप्त करते है।पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त औरपूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है।पीपल की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता,दु:ख,दुर्भाग्य का विनाश होता है।पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु व समृद्धि प्राप्त होती है|श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार को हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है|<br />
शास्त्रों में वैशाख मास में भगवान मधुसूदन की विधिवत अर्चना मोक्षकारी बताई गई है। इस पुण्यकारी मास में भगवान मधुसूदन की अर्चना के साथ ही पीपल वृक्ष के पूजन का प्रावधान भी स्कन्दपुराण में वर्णित है। वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से पीपल को शुभ फलदायी माना गया है।<br />
शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व पत्तों में भगवान शिव का निवास होता है। स्कन्दपुराण के अनुसार पीपल के वृक्ष को काटना ब्रह्मा हत्या के समान पापकर्म है। यह सर्वविदित है कि पीपल भगवान मधुसूदन को बेहद प्रिय है। भगवान श्रीकृष्ण श्री भगवद्गीता में अर्जुन से कहते हैं,‘अश्वत्थ सर्वा वृक्षाणां देवषीणां च नारद।।’ अर्थात् हे अर्जुन, मैं समस्त वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूं तथा देव ऋषियों में नारद मुनि हूं। वैशाख मास में पीपल को सांसारिक सुख, वैभव व मोक्ष प्राप्ति का सहज एवं सरल साधन के रूप में वर्णित किया गया है।<br />
पद्मपुराण में एक स्थान पर स्वयं भगवान मधुसूदन का कथन है, ‘जो पीपल वृक्ष की सेवा करके वस्त्र दान करता है, वह समस्त पापों से छूटकर अंत में विष्णु भक्त हो जाता है। कार्तिक माहात्म्य में श्री सूत जी संतों से पीपल का माहात्म्य इस प्रकार वर्णित करते हैं, ‘भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि व्रत करते हुए यदि साधक किसी संकट में पड़कर व्रत का पालन न कर पाए व विष्णुजी का मंदिर पास न हो तो उसे पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर मेरा जाप करना चाहिए, उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।’ वायव्य संहिता में भी पीपल वृक्ष की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान महादेव मां उमा से कहते हैं,‘पीपल वृक्ष के नीचे किये गये जप-पूजा का सहस्र गुना फल प्राप्त होता है।’ यह भी माना जाता है कि पीपल में अलक्ष्मी-दरिद्रा-जो कि देवी लक्ष्मी की बहन थी, का वास होता है। भगवान विष्णु व लक्ष्मीजी से प्राप्त वरदान के कारण शनिवार को जो भक्त अलक्ष्मीजी के निवास अर्थात् पीपल वृक्ष की आराधना करते हैं, उन्हें निश्चित ही शुभ फल की प्राप्ति होती है। इसी कारण शनेश्चरी अमावस्या व शनि प्रदोष होने पर पंचामृत से पीपल की अर्चना का प्रावधान शास्त्रों में वर्णित है। साधक को पीपल पूजन के पावन दिन पीपल की छाया में ‘ऊँ नम: वासुदेवाय नम:’ का जाप करते हुए धूप-दीप व नैवेद्य से विधिवत पीपल का पूजन करना चाहिए। पीपल की विधिवत पूजा करने से साधक की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।<br />
पीपल पूजन से न केवल साधक, बल्कि उसके पितरों का भी कल्याण संभव है। स्कंदपुराण में यहां तक कहा गया है, कि जिस व्यक्ति के पुत्र न हो, वह पीपल को ही अपना पुत्र माने।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGO7_du5NhJfyKEQae7rrh6WPszDWKc_TAkhej0hiuFfd2XJnEzFS4EWxidE84g2R8ptiFB0_h0XPWnjdpBwUT8akmtLKBItjgpjPeUVB-IPe4gpM9oAinQk9v_LQkmnMx88Ul6MIF7NQ/s1600/BuddhaUnderBodhiTree.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="206" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGO7_du5NhJfyKEQae7rrh6WPszDWKc_TAkhej0hiuFfd2XJnEzFS4EWxidE84g2R8ptiFB0_h0XPWnjdpBwUT8akmtLKBItjgpjPeUVB-IPe4gpM9oAinQk9v_LQkmnMx88Ul6MIF7NQ/s320/BuddhaUnderBodhiTree.jpg" width="320" /></a></div><br />
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</div>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-8030205092680722011-05-15T08:26:00.000-07:002011-05-15T08:26:39.859-07:00माँ काली स्तुति…<iframe width="425" height="344" src="http://www.youtube.com/embed/FpXKO-0yhEc?fs=1" frameborder="0" allowfullscreen=""></iframe>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-14974910289235261862011-05-15T07:56:00.000-07:002011-05-15T07:56:07.151-07:00श्री मां काली कवच<iframe width="425" height="344" src="http://www.youtube.com/embed/aOCGA5rhxss?fs=1" frameborder="0" allowfullscreen=""></iframe>BHAGYOTKARSHhttp://www.blogger.com/profile/17066673703186256415noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7902751515132324466.post-82260005312709953312011-05-12T09:04:00.000-07:002011-05-13T13:38:11.087-07:00आद्य श्री शंकराचार्य जी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVWbRCMIw-7qn5fsHENbUwbePphF-fgqgKrwSNZ7p5NhasLZLwT0G9a_TZgb-1QTg-pAeSYegoVKSdxhXf5EyvJ5l5xsyB7W4CO12v9I5gcUalPs0EzaN847Ky276g339jdRRAwg0g4Bc/s1600/aadya+shankracharya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVWbRCMIw-7qn5fsHENbUwbePphF-fgqgKrwSNZ7p5NhasLZLwT0G9a_TZgb-1QTg-pAeSYegoVKSdxhXf5EyvJ5l5xsyB7W4CO12v9I5gcUalPs0EzaN847Ky276g339jdRRAwg0g4Bc/s1600/aadya+shankracharya.jpg" /></a></div><br />
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केरल प्रांत की नैसर्गिक सौंदर्य से युक्त त्रिचूर नगरी में लगभग बारह शताब्दी पूर्व नम्बूद्रि परिवार के शिवगुरु एवं आर्याम्बा के आंगन में भगवान श्री वृषायक्तेश्वर की कृपा से नायक श्री शंकर का अवतरण हुआ। यही आगे चलकर आद्य श्री शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।<br />
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तत्कालीन भारत की स्थिति भयावह थी। लोकयतिक बौद्ध, जैन, वैदिक सनातन धर्म विरोधी हो चुके थे। कापालिक पाशुपत, पांचराज मतावलंबी पाखंड प्रचार में संलग्न थे। प्रत्येक संप्रदाय, पंथ उनके प्रमुख देवता की उपासना आराधना तक सीमित हो चुका था। फलस्वरूप धार्मिक एकता ही नहीं, अपितु भौगोलिक एकता की नष्टप्रायः थी। सार रूप में यह स्पष्ट था कि भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति एवं सभ्यता जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षमय थी।<br />
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ऐसे भयावह दौर में आचार्य शंकर का अवतरण परित्राणाय साधूनां विभाशाय च दुष्कृताम् के अनुरूप हुआ। प्रखर बुद्धि शंकर ने संस्कृत एवं मातृभाषा मलयालम का अध्ययन एवं मनन किया। स्वल्पकाल में संपूर्ण वैदिक वाङ्गमय, पुराणेतिहास, स्मृति आदि का अध्ययन कर किया।<br />
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सुदूर दक्षिण से चलकर पुण्यशिला नर्मदा के तट पर क्रांतदर्शी भगवान शुकदेवजी के शिष्य आचार्य गौड़पाद के परमशिष्य गोविंद भगवत्पाचार्य से संन्यास दीक्षा प्राप्त की। अद्वैत-वेदांत के प्रचार-प्रसार का गुरुत्तर भार वहन करते हुए वैदिक दिग्विजय यात्रा की और चारों दिशाओं में स्थापना एवं कालांतर में उपपीठों की स्थापना की गई।<br />
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उत्तर एवं दक्षिण के सेतुबंध, प्रस्थानत्रयी के भाष्यकार, छिहोत्तर प्रकरण ग्रंथों की रचना एवं शताधिक स्तोत्रों की रसधारा की प्रवाहयुक्त गंगा का अवगाहन करवाने वाले और राष्ट्र की एकता-अखंडता के लिए समर्पित ऐसे महान विश्व गौरव आद्य श्री शंकराचार्य जी के श्री चरणों में कोटिशः नमन। मानवता के ज्योतिर्मय सूर्य जगद्गगुरु शंकराचार्य: एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘शंकर’, जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’<br />
कुछ समय के पश्चात ई. सन् ६८६ में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चि, ललाट पर नेत्र चि तथा स्कंध पर शूल चि परिलक्षित कर उसे शिवावतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्<br />
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्<br />
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। 'तत्त्वमसि' तुम ही ब्रह्म हो; 'अहं ब्रह्मास्मि' मै ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -<br />
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:<br />
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कत्र्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।<br />
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