Tuesday, September 21, 2010

श्रद्धा से ही है "श्राद्ध"

मनुष्य तीन ऋणों को लेकर जन्म लेता है - देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देवार्चन से देव ऋण, अध्ययन से ऋषि ऋण एवं पुत्र की उत्पत्ति के बाद  एवम श्राद्ध कर्म से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। श्रद्धा से ही श्राद्ध है । श्रद्धापूर्वक पितरों के लिए ब्राह्मण भोजन, तिल, जल आदि से तर्पण एवं दान करने से पितृ ऋण से मुक्ति और पितरों को प्रसन्नता मिलती है और हमें उनका आशीर्वाद मिलता है , जिससे हम सपरिवार सुख-समृद्धि प्राप्त करते हैं । अपने पितरों को प्रसन्न कर हम ॠण मुक्त तो होते ही हैं साथ ही इह लोक और परलोक भी सुधार सकते हैं

पितृपक्ष और श्राद्ध

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्ध की भूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेतस्‌ का अंश लेकर वह चंद्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है।
उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।
जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ आते हैं।
विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध  से विमुख नहीं होना चाहिए ।

माँ एक , रूप अनेक

                           या देवी सर्व भूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।                                                                                नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥                              

नवरात्रि पूजा : शुक्रवार 08 अक्टूबर से प्रारंभ

प्रथम शैलपुत्री


इनके ध्यान का मंत्र है:-


”वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृत शेखराम।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम॥“


गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का है, जिनकी आराधना से प्राणी सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।

द्वितीय ब्रह्मचारिणी


इनके ध्यान का मंत्र है:-


“दधना कर पद्याभ्यांक्षमाला कमण्डलम।
देवी प्रसीदमयी ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥“


जो दोनो कर-कमलो मे अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओ की पूर्ति करती है।

तृतीय चन्द्रघण्टा


इनके ध्यान का मंत्र है:-


”पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैयुता।
प्रसादं तनुते मद्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥“


इनकी आराधना से मनुष्य के हृदय से अहंकार का नाश होता है तथा वह असीम शांति की प्राप्ति कर प्रसन्न होता है। माँ चन्द्रघण्टा मंगलदायनी है तथा भक्तों को निरोग रखकर उन्हें वैभव तथा ऐश्वर्य प्रदान करती है। उनके घंटो मे अपूर्व शीतलता का वास है।

चर्तुथकम कुष्माण्डा


इनके ध्यान का मंत्र है:-


”सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥“


इनकी आराधना से मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। माँ कुष्माण्डा सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं।

पंचम स्कन्दमाता


इनके ध्यान का मंत्र है:-


“सिंहासनगता नित्यं पद्याञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥“


इनकी आराधना से मनुष्य सुख-शांति की प्राप्ति करता है। सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।

षष्ठ्म कात्यायनी


इनके ध्यान का मंत्र है:-


“चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलावरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानव घातिनी॥“


इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।

सप्तम कालरात्री


इनके ध्यान का मंत्र है:-


“एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥“


संसार में कालो का नाश करने वाली देवी ‘कालरात्री’ ही है। भक्तों द्वारा इनकी पूजा के उपरांत उसके सभी दु:ख, संताप भगवती हर लेती है। दुश्मनों का नाश करती है तथा मनोवांछित फल प्रदान कर उपासक को संतुष्ट करती हैं।

अष्टम महागौरी



इनके ध्यान का मंत्र है:-


                                         “श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।
                                           महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥“


माँ महागौरी की आराधना से किसी प्रकार के रूप और मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। उजले वस्त्र धारण किये हुए महादेव को आनंद देवे वाली शुद्धता मूर्ती देवी महागौरी मंगलदायिनी हों।

नवम सिद्धिदात्री

इनके ध्यान का मंत्र है:-


“सिद्धगंधर्वयक्षादौर सुरैरमरै रवि।
सेव्यमाना सदाभूयात सिद्धिदा सिद्धिदायनी॥“

सिद्धिदात्री की कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर मोक्ष पाने मे सफल होता है। मार्कण्डेयपुराण में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्वये आठ सिद्धियाँ बतलायी गयी है। भगवती सिद्धिदात्री उपरोक्त संपूर्ण सिद्धियाँ अपने उपासको को प्रदान करती है।

माँ दुर्गा के इस अंतिम स्वरूप की आराधना के साथ ही नवरात्र के अनुष्ठान का समापन हो जाता है ।

Sunday, September 12, 2010

भगवान श्री विश्वकर्मा जी की पूजा -17 सितम्बर को





प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं।
स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
 प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है। शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है,वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। " विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है "विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः"अर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यापार है वह विश्वकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदो मे " विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात्" कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है। हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए। हमारी भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उद्योगों में भगवान विश्वकर्मा की महता को प्रगट करते हुए प्रत्येक वर्ग 17 सितम्बर को "श्रम दिवस" के रुप मे मनाता है । यह उत्पादन-वृदि ओर राष्टीय समृध्दि के लिए एक संकलप दिवस है। यह पर्व हमारे देश में प्रतिवर्ष 17 सितम्बर "विश्वकर्मा-पूजा" के रुप में सरकारी व गैर सरकारी ईंजीनियरिंग संस्थानो मे बडे ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।

Thursday, September 9, 2010

श्री गणेश चतुर्थी - गणेश महोत्सव का पर्व


देश में गणेश महोत्सव का पर्व शनिवार को शुरू हो रहा है। विध्न विनाशक भगवान गणेश जी की पूजा धूमधाम से की जायेगी। गाँव हो या शहर हर जगह श्रि गणेश स्थापना पूजा पंडाल बनाये गये हैं, जहां विधि विधान से गणपति की स्थापना एवम पूजा-आराधना की जायेगी । गणेश पूजन कर एक्कीस दुर्वाकुंर, मोदक लड्डू आदि का भोग लगाने का विधान है। गणेश चौथ पर चौक-चांदनी का विधान पहले गुरुकुलों में चलता था, जो अब समाप्त हो गया है। गणेश चतुर्थी में ग्यारह दिवसीय पूजन महोत्सव मनाया जाता है। बाल गंगाधर तिलक ने अठारवीं सदी में महाराष्ट्र के पुणे में गणेश महोत्सव की सामूहिक रूप से आयोजन की परंपरा शुरू की। जिसका लक्ष्य था देश में एकता स्थापित कर अंग्रजों से भारत को आजाद कराना । गणेश चतुर्थी का यह व्रत स्वतंत्रता संग्राम में अहम् भूमिका निभाया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भदवा चौथ का चंद्र रात्रि में नहीं देखा जाना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ने भूल वश भदवा चौथ का चांद देख लिया था। इसी चांद देखने से भगवान कृष्ण पर समन्तक मणि चुराने का भी आरोप लगा था। श्री कृष्ण भगवान गणेश के पूजन से आरोप मुक्त सिद्ध हुए, तब से परंपरा कायम है।धर्मशास्त्रों के अनुसार कृष्ण व शुक्ल पक्ष में आने वाली चतुर्थी तिथि के देवता भगवान गणेश हैं। इस तिथि को भगवान गणेश की आराधना करने से वे प्रसन्न होते हैं। लेकिन श्रावण के शुक्ल पक्ष में आने वाली चतुर्थी और भी विशेष है। इस दिन गणेश के साथ शंकर की पूजा भी करनी चाहिए। भगवान शंकर सभी देवों में पूजनीय हैं वहीं भगवान गणेश बुद्धि के देवता हैं। इस दिन भगवान शंकर को धतूरा व बिल्व पत्र तथा गणेश को दुर्वा व मोदक अर्पण से शिव व गणेश दोनों प्रसन्न होते हैं। 
श्रावण शुक्ल चतुर्थी दूर्वा गणपति का व्रत भी किया जाता है। व्रत के लिए सोने की प्रतिमा और सोने की दूर्वा बनाई जाती है। विधिपूर्वक तीन या पांच वर्ष तक व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।
शिवपुराणके अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपालबना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर विष्णुजीउत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर!तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्यदेकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्षपर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

हरितालिका तीज व्रत - पूजा

देश के कुछ भाग में यह पर्व आज 10 सितम्बर तो कुछ जगह 11 सितम्बर को मनाया जा रहा है । भविष्योत्तर पुराण के अनुसार भाद्र पद की शुक्ल तृतीया को हरितालिका व्रत किया जता है । इसमें मुहूर्त मात्र हो तो भी बाद की तिथि ग्राह्य की जाती है , क्योंकि द्वितीया पितामह और चतुर्थी पुत्र की तिथि है अतः द्वितीया का योग निषेध एवम चतुर्थी का योग श्रेष्ठ माना जाता है ।( इस वर्ष यह योग 11 सितम्बर को है)
यह व्रत स्त्रियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसे सबसे पहले गिरिराज हिमालय की पुत्री उमा (पार्वती) ने किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान शंकर उन्हें पति के रूप में प्राप्त हुए। व्रत की कथा से भगवती पार्वती की कठोर तपस्या, भोले नाथ शिव के प्रति उनकी दृढ निष्ठा, उनके असीम धैर्य व संयम तथा पतिव्रता के धर्म का परिचय मिलता है। कथा के श्रवण का उद्देश्य स्त्री के मनोबल को ऊंचा उठाना है। कथा का सार-संक्षेप यह है-पूर्वकाल में जब दक्षकन्या सती पिता के यज्ञ में अपने पति भगवान शिव की उपेक्षा होने पर भी पहुंच गई, तब उन्हें बडा तिरस्कार सहना पडा। पिता के यहां पति का अपमान देखकर वह इतनी क्षुब्ध हुई कि उन्होंने अपने आप को योगाग्निमें भस्म कर दिया। बाद में वे आदिशक्ति ही मैना और हिमाचल की तपस्या से संतुष्ट होकर उनके यहां पुत्री के रूप में प्रकट हुई। उस कन्या का नाम पार्वती पड़ा । इस जन्म में भी उनकी पूर्व-स्मृति अक्षुण्ण बनी रही और वे सदा भगवान शंकर के ध्यान में ही मग्न रहतीं। मनोनुकूल वर की प्राप्ति के लिए पार्वती जी तपस्यारत हो गई। पुत्री को अति कठोर तप करते देख पिता हिमाचल चिन्तित हो उठे। उन्होंने देवर्षि नारद के परामर्श पर अपनी बेटी उमा का विवाह भगवान विष्णु से करने का निश्चय किया। भगवान शिव की अनन्य उपासिका पार्वती को जब यह समाचार मिला तो उन्हें बडा आघात लगा। वे मुर्क्षित होकर पृथ्वी पर गिर पडीं। सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने उनसे अपने मन की बात बताई कि वे शिव शंकर जी के अलावा अन्य किसी से भी कदापि विवाह नहीं करेंगी। शिव जी के प्रति उमा के अनन्य प्रेम को जानकर सखियां बोलीं,-तुम्हारे पिता विष्णु जी के साथ विवाह कराने हेतु तुम्हें लेने के लिए आते ही होंगे। आओ जल्दी चलो, हम तुम्हें लेकर किसी घने जंगल में छुप जाएं। इस प्रकार सखियों के द्वारा हरण करने की तरह उमा को ले जाये जाने के कारण ही इस व्रत का नाम हरितालिका पडा- आलिभिर्हरितायस्मात्तस्मात्सा हरितालिका।
गहन वन की एक पर्वतीय कन्दरा के भीतर पार्वती जी ने शिवजी की बालू की मुर्ति बनाकर उनका पूजन किया। उस दिन भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया थी। उमा ने निर्जल-निराहार व्रत करते हुए दिन-रात शिव नाम-मंत्र का जप किया। पार्वती की सच्ची भक्ति एवं संकल्प की दृढता से प्रसन्न होकर सदा शिवप्रकट हो गए और उन्होंने उमा को पत्‍‌नी के रूप में वरण करना स्वीकार कर लिया। भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन पार्वती की दुष्कर तपस्या सफल हुई थी, तब से यह पावन तिथि स्त्रियों के लिए सौभाग्यदायिनी हो गई। सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु और अखण्ड सौभाग्य की कामना से इस दिन बडी आस्था के साथ व्रत करती हैं। कुंवारी कन्याएं भी मनोवांछित वर की प्राप्ति हेतु यह व्रत बडे उत्साह के साथ करती हैं। स्त्रियां अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार हरितालिका तीज का व्रतोत्सव मनाती हैं। महिलाएं इस दिन नए वस्त्र को धारण करके पूजा करती हैं। मिट्टी की शिव-पार्वती की मूर्तियों का विधिवत पूजन करके हरितालिका तीज की कथा को सुना जाता है। भवानी माता को सुहाग का सारा सामान चढाया जाता है। इस व्रत के शास्त्रोक्त विधान में तो इस दिन निर्जल उपवास का ही निर्देश है।
जिन कन्याओं के विवाह में विघ्न-बाधा के कारण अनावश्यक विलम्ब हो रहा हो वे युवतियां भाद्रपद शुक्ल तृतीया (हरितालिका तीज)के दिन जगदम्बा पार्वती का पूजन एवं व्रत करें ।