Wednesday, August 25, 2010

बृहस्पति को गुरू क्यों कहते हैं !

खगोल शास्त्र और ज्योतिष में सौरमंडल के नौ ग्रहों में सूर्य सहित शुक्र और बृहस्पति आते हैं। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण में भी इन तीनों से तीन दिनों का नाम जु़डा हुआ है। परस्पर तीनों की तुलना में सूर्य सर्वाधिक प्रकाशवान हैं, सबसे बडे़ और सबसे भारी हैं। बृहस्पति ग्रह का एक पर्यायवाची शब्द जो प्रचलन में व्यापक देखने को मिलता है वह गुरू शब्द है। गुरू शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनमें आधार भूत अर्थ जो अधंकार को मिटाये, भारी, ब़डा इत्यादि हैं।
पौराणिक साहित्य में देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं और असुरों के गुरू शुक्र शुक्राचार्य हैं। अत: इन तीनों यथा सूर्य, बृहस्पति और शुक्र में गुरू का संबोधन सूर्य को न दिया जाकर बृहस्पति को क्यों दिया गया है? यह एक सहज जिज्ञासा है। बृहस्पति को गुरू नामकरण दिया जाना निरर्थक नहीं हो सकता है अपितु उसमें कोई सार्थकता अवश्य है वह सार्थकता क्या हो सकती है और वह कितनी हितकारी हो सकती है यह जानने के लिए गुरू शब्द की पवित्रता और महानता की पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक प्रतीत होता है।
गुरू शब्द का प्रयोग भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक स्तर पर किया जाता है। भौतिक और दैविक स्तर अपरा जगत के अंतर्गत हैं और आध्यात्म को परास्तर पर व्यक्त किया जाता है। इन्हीं को पांच कोष अथवा सात लोकों के रूप में भी व्यक्त किया गया है यथा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश हैं तथा भू, भुव:, स्व: जन, मह, तप और सत्य लोक हैं। इनमें मनोमय को चन्द्रलोक तथा विज्ञानमय को सूर्य लोक भी कहा गया है। आनंदमय कोश का स्थान सत्यलोक माना गया है। भारतीय परम्परा में विश्व शांति हेतु भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति हेतु एकरूपता बनाए रखते हुए। ईश्वर से प्रार्थना की जाती है यथा ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
आध्यात्म का स्तर सूर्य और चन्द्रमा के लोकों से भी कहीं आगे तक जाता है। अत: गुरू संबोधन सूर्य अथवा चंद्रमा को नहीं दिया गया। दैविक स्तर पर सतयुग की गाथाएं देव और असुरों के मध्य परस्पर संघषो का वर्णन करती हैं। संघष से अशांति ही उत्पन्न होती हैं अत: अधिदैविक स्तर पर शांति हेतु मार्गदर्शन कौन करें- देवगुरू बृहस्पति या असुर गुरू शुक्राचार्यक् गुरूपद की मर्यादा की पवित्रता के अनुरूप यद्यपि देव और असुर परस्पर शत्रु थे किन्तु उनके गुरू बृहस्पति और शुक्र के संबंध आत्मीय थे।
भौतिक जगत में जहाँ संपूर्ण संसार धन-संपत्ति और सांसारिक सुखों की कामना करता है वहाँ जगद्गुरू शंकराचार्य ने गुरू प्रशस्ति पर संस्कृत भाषा में दो अष्टक लिखे हैं। एक अष्टक में गुरू तत्व का विवेचन करते हुये श्री सत्यदेव को समर्पित किया है जिनका निरंतर स्मरण बना रहना चाहिए। दूसरे अष्टक में श्री गुरू के चरण कमल की तुलना में संपूर्ण संसार की निस्सारता को व्यक्त किया है। आध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिये ये अमूल्य योगदान है।
[                                                                                         ---वीरेन्द्र नाथ भार्गव




Thursday, August 19, 2010

रक्षाबंधन

प्राचीनकाल में रक्षाबंधन मुख्यत: ब्राह्मणों का, विजयदशमी क्षत्रियों, दीपावली वैश्यों और होली शूद्रों का त्यौहार माना जाता था। प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी जाने लगा। यह भी कहा जाता है कि यज्ञ में जो यज्ञसूत्र बांधा जाता था उसे आगे चलकर रक्षासूत्र कहा जाने लगा।रक्षाबंधन की सामाजिक लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई, यह कहना कठिन है। कुछ पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र है जिसके अनुसार भगवान विष्णु के वामनावतार ने भी राजा बलि के रक्षासूत्र बांधा था और उसके बाद ही उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। आज भी रक्षासूत्र बांधते समय एक मंत्र बोला जाता है उसमें इसी घटना का जिक्र होता है। परंपरागत मान्यता के अनुसार रक्षाबंधन का संबंध एक पौराणिक कथा से माना जाता है, जो कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्योत्तर पुराण में वर्णित बताई जाती है। इसमें राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बतलाया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र के तिलक लगाकर उसके रक्षासूत्र बांधा था जिससे इंद्र विजयी हुए। वर्तमानकाल में परिवार में किसी या सभी पूज्य और आदरणीय लोगों को रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा भी है। वृक्षों की रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत भी मिलते हैं।

रक्षासूत्र का मंत्र और उद्देश्य

रक्षासूत्र का मंत्र है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
मौली या कलावा जिससे रक्षासूत्र बनता है
शास्त्रों में कहा गया है - इस दिन अपरान्ह में रक्षासूत्र का पूजन करे और उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा को पुरोहित द्वारा यजमान के ब्राह्मण द्वारा, भाई के बहिन द्वारा और पति के पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है. संस्कृत की उक्ति के अनुसार -
"जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।"
अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है। रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएं काम करती रही हैं. प्रथम जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना और दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना। इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा का बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है। सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी। पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षासूत्र बांधने की बात की गई हैं वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो सकता है। धागा केवल उसका प्रतीक है। रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-
ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:। तन्मआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।
मोतियों से बनी अनेक प्रकार की राखियाँ
साधारण मौली की राखियाँ भी बाज़ार में मिलती हैं। छोटे बच्चों के लिए उपहार युक्त राखियां, जिसमें रौशनी वाले खिलौने, टेडी बियर, इलेक्ट्रानिक उपकरण व चाकलेट लगी राखियाँ भी बाज़ार में मिलती हैं। बड़ों के लिए चंदन, कीमती नगों, सिंदूर, चावल तथा सोन व चाँदी के ब्रेसलेट लोगों में खूब लोकप्रिय हैं। इसके अतिरिक्त रंगीन धागे, मोती व चंदन जड़ित धागे डाक से भेजे जाने के लिए अधिक पसंद किए जाते हैं। अनेक रक्षासूत्रों पर भगवान के भी दर्शन होते हैं। राखियों पर संप्रदाय के अनुरूप देवी-देवताओं की प्रतिमा उकेरी और चित्र चिपकाए जाते हैं। दूर-दराज व विदेशों में भेजने के अभिनंदन पत्रों के साथ भी राखियां भी मिलती हैं। इसमें भाइयों के लिए राखी के साथ शुभकामना संदेश भी होते है। इसके अलावा सुनार और आभूषणों की दूकानों पर चाँदी, डायमंड, अमरीकन ज़रीकन, रुद्राक्ष से मंडित राखियाँ विभिन्न डिज़ाइनों एवं रंगों में उपलब्ध हैं।
भारत में विदेशी राखियाँ भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। आमतौर पर इलेक्ट्रॉनिक सामान की नकल करने में मशहूर चीन अब राखी कारोबार में भी फल-फूल रहा है। इन राखियों में साटन के धागों में छोटे-छोटे खिलौने, गाड़ियाँ, फुटबॉल, टेडिबियर, गुड्डे-गुड़िया, सुपरमैन और रंग-बिरंगे फूल बँधे हुए हैं। यहाँ तक कि बच्चों के लिए धागों पर चूहे को भी विराजमान कर दिया गया है।
बहनों की व्यस्तता को देखते हुए भारत का डाक विभाग ऐसे लिफ़ाफ़े बिक्री के लिए जारी करता है, जिन पर बहन को केवल भाई का पता भर लिखना होता है। इनमें राखी, रोली व चावल सहित सभी सामग्री पहले से होती है। इसके अलावा वाटर प्रूफ़ लिफ़ाफ़े भी जारी किए जाते हैं। कुछ लिफ़ाफ़े ऐसे भी तैयार कराए जाते हैं जिनमें राखी सहित सभी सामग्री होती है। इनकी बिक्री अनेक मुख्य या प्रधान डाकघरों द्वारा की जाती है। डाक छँटाई के दौरान राखी डाक का विशेष ध्यान रखा जाता है।

Tuesday, August 3, 2010

पति की दीर्घायु कामना के लिए व्रत - सोमवती अमावस्या (09 अगस्त 2010)


सोमवती अमावस्या (09 अगस्त 2010) सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाता है । विवाहित स्त्रियों द्वारा इस दिन अपने पतियों के दीर्घायु कामना के लिए व्रत का विधान है. कुछ परम्पराओं में इस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा पीपल के वृक्ष की दूध, जल, पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा और वृक्ष के चारों ओर १०८ बार धागा लपेट कर परिक्रमा करने का विधान है । कहीं - कहीं 14 परिक्रमा करने का भी विधान है । धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढाया जाता है । इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है।
सोमवती अमावस्या कथा -सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। परंपरा है कि सोमवती अमावस्या के दिन इन कथाओं को विधिपूर्वक सुना जाता है। कथा है - "एक गरीब ब्राह्मण परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी. उस लड़की में समय के साथ सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था। लड़की सुन्दर, संस्कारवान एवं गुणवान भी थी, लेकिन गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था. एक दिन ब्राह्मण के घर एक साधू पधारे, जो कि कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए। कन्या को लम्बी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है। ब्राह्मण दम्पति ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए। साधू ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धोबिन जाती की एक महिला अपने बेटे और बहू के साथ रहती है, जो की बहुत ही आचार- विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है। यदि यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है। साधू ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती जाती नहीं है। यह बात सुनकर ब्राह्मणी ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही। कन्या तडके ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे करके अपने घर वापस आ जाती। सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो तडके ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता। बहू ने कहा कि माँजी मैंने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम ख़ुद ही ख़तम कर लेती हैं। मैं तो देर से उठती हूँ। इस पर दोनों सास बहू निगरानी करने करने लगी कि कौन है जो तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता हा। कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक एक कन्या मुँह अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है। जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं। तब कन्या ने साधू द्बारा कही गई साड़ी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोड़ा अस्वस्थ थे। उसमे अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा। सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति की मृत्यु हो गई । उसे इस बात का पता चल गया। वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी.उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्राह्मण के घर मिले पूए- पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से १०८ बार  पीपल के पेड़ की परिक्रमा की, और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसका पति जीवित हो गया । पीपल के पेड़ में सभी देवों का वास होता है। अतः, सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन परिक्रमा करता है, उसके सुख और सौभाग्य में वृद्धि होती है। जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन १०८ वस्तुओं कि फ़ैरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश कि पूजा करता है, उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।ऐसी परम्परा है कि पहली सोमवती अमावस्या के दिन धान, पान, हल्दी, सिन्दूर और सुपाड़ी की भँवरी दी जाती है। उसके बाद की सोमवती अमावस्या को अपने सामर्थ्य के हिसाब से फल, मिठाई, सुहाग सामग्री, खाने की सामग्री इत्यादि की फ़ैरी में दी जाती है। परिक्रमा करने पर चढाया गया सामान किसी सुपात्र ब्राह्मण, ननद या भांजे को दिया जा सकता है। 

Monday, August 2, 2010

पितृ दोष से मुक्ति के लिए नाग पंचमी पर जरूर करें पूजा

इस वर्ष नाग पंचमी पर्व 14 अगस्त शनिवार को, परंपरागत तरीके से मनाया जाएगा। इस दिन घरों में प्रतीक रूप से नाग पूजा की जाएगी। मान्यताओं के अनुसार पितृ दोष से मुक्ति के लिए इस दिन उनकी पूजा का विधान किया गया है । नागपंचमी पर नाग की पूजा प्रत्यक्ष मूर्ति या चित्रों के रूप में की जाती है। इसी दिन सर्पो के प्रतीक रूप को दूध से स्नान करा कर उनकी पूजा करने का विधान है । दूध पिलाने से, वासुकी कुंड में स्नान करने, निज गृह के द्वार में दोनों और गोबर के सर्प बनाकर उनका दही, दु़र्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, मोदक और मालपुओं आदि से पूजा करने से घर में सर्पो का भय नहीं होता। भगवान विष्णु की शैया "अनन्त" नामक नागराज की है। धर्म ग्रंथों में उल्लेख है कि - महाभारत में कृष्ण और अजरुन ने भी मणिनाग की पूजा की। बौद्ध व जैन धर्म के अनुसार मुचलिंद नाग ने फन फैलाकर भगवान बुद्ध और भगवान पाश्र्वनाथ की भी तपस्या के दौरान धूप व हवा से रक्षा की थी। वेद-पुराणों के अनुसार नागों की उत्पति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रु से हुई, इनका निवास स्थान पाताल लोक है।
नाग पंचमी पर्व पर शिव आराधना करें -
नाग पंचमी के दिन नाग की पूजा के साथ-साथ नागों के देवता देवाधिदेव महादेव की भी पूजा करना चाहिए। पंडितों ने बताया कि काल सर्प दोष निवारण के लिए नाग पंचमी के दिन नागनुमा अंगूठी बनवाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे धारण करें। इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में तांबे का सर्प बनवाकर उसकी पूजा करके शिवलिंग पर चढ़ाएं तथा इससे पूर्व एक रात उसे घर में ही रखें। नाग पंचमी को एक नाग-नागिन सपेरों से बंधन मुक्त कराने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है । इस मौके पर नागावली और नारायण नागावली का जप करें। "ऊं नम: शिवाय मंत्र" का जाप करें। राहु कवच या राहु स्त्रोत का पाठ करें। सत्यमुखी रुद्राक्ष गले में पहने तथा काल सर्प योग के साथ-साथ चंद्र राहु, चंद्र केतु, सूर्य-केतु, एक भी ग्रह योग हो तो केतु का रत्न लहसुनिया मध्यमा अंगुली में पहनें। इसके अलावा घर व कार्यालय में मोर पंख रखें व कालसर्प निदान के लिए शांति विधान करें। चंदन की लकड़ी पर चांदी का जोड़ा बनवाकर पूजा करके धारण करें।
शुभ भी होता है कालसर्प योग
गरुड़ पुराण के अनुसार नाग-पंचमी के दिन नाग देवता की पूजा करने से सुख-शांति की प्राप्ति होती है। राहु को सर्प का मुख और केतु को उसकी पूंछ माना जाता है। जब भी समस्त ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य में आते हैं तो वह कालसर्प योग कहलाता है। कालसर्प योग शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। इसकी शुभता और अशुभता अन्य ग्रहों के योगों पर निर्भर करती है। जब भी कालसर्प योग में पंच महापुरुष योग, रुचक, भद्र, मालव्य व शश योग, गज केसरी, राज सम्मान योग महाधनपति योग बनें तो व्यक्ति उन्नति करता है।
जब कालसर्प योग के साथ अशुभ योग बने जैसे-ग्रहण, चाण्डाल, अशांरक, जड़त्व, नंदा, अंभोत्कम, कपर, क्रोध, पिशाच हो तो वह अनिष्टकारी होता है। ज्योतिषशास्त्र में 576 प्रकार के कालसर्प योग बताए गए हैं जिनमें लग्न से द्वादश स्थान तक मुख्यत: 12 प्रकार के सर्प योगों में अन्नत, कुलिक, वासुकी, शंखपाल, पदम, महापदम, तक्षक, कर्कोटक, शंखनाद, पातक, विशान्त तथा शेषनाग शामिल है। कालसर्प योग दोष निवारण के लिए नागपंचमी के दिन सर्प की पूजा करना सर्वाधिक अच्छा रहता है