Sunday, July 25, 2010

शिव की कृपा बरसाने आया सावन

शिव की कृपा बरसाने आया सावन । शिव परम तत्त्‍‌व हैं और उन्हें शक्ति प्रदान करने वाली जगतजननी मां जगदम्बा परमेश्वरी। जब जीवात्मा में शिव तत्त्‍‌व का प्रवेश होता है, तभी जीव शक्ति को समझ पाता है। शिव और शक्ति के इसी रहस्य को जानने का महीना है सावन। भारतीय परंपरा में सावन के कई रूप हैं, लेकिन यहां हम देवभूमि में प्रचलित सावन के रहस्यों को ही उजागर करेंगे। संवत्सरीय गणना के अनुसार देवभूमि में सावन की शुरुआत कर्क यानी हरियाली संक्रांति से होती है। यह चातुर्मास का पहला महीना भी है। कहते हैं कि चातुर्मास में श्रीहरि राजा बलि को दिए गए वचन के अनुसार पाताल में विश्राम करते हैं। इसलिए इस अवधि सिर्फ भगवान आशुतोष की ही पूजा होती है। यूं तो शिव और सावन एक-दूसरे के पर्याय हैं, लेकिन शिव को सोमवार अत्यंत प्रिय है, जो आज पड़ रहा है। इस दौरान हजारों शिवभक्त शिवलिंग का जलाभिषेक करेंगे, जिसकी तैयारियां द्रोणनगरी के प्रमुख शिवालयों में कर ली गई हैं। शिव को जानने के लिए उनकी प्रकृति को समझना आवश्यक है। समस्त प्राणियों के एकमात्र आश्रयदाता शिव ही हैं। वे रुद्र भी कहलाते हैं, जिनके समीप पहुंचकर सारे दु:ख खत्म हो जाते हैं। शिव का एक नाम हर भी है, वे सबके दु:खों को हरते हैं। शिव नीलकंठ हैं, जो विश्व के कल्याण के लिए विष का पान कर लेते हैं। वे कर्पूर गौरं हैं, मतलब सारे सद्गुण उन्हीं से प्रकट होते हैं। उनके गले में सर्पो की माला सुशोभित है, जो यह दर्शाती है कि अपने जीवन में कष्टों को भी गले से लगाए रखो। कानों में बिच्छू और बर्र के कुंडल, यानी कटु शब्दों को सहने की क्षमता। इसी तरह मुंडों की माला और भस्म लेपन जीव की अंतिम अवस्था का द्योतक है। शिव प्रलय के देवता कहे गए हैं। इस दृष्टि से वे तमोगुण के अधिष्ठाता हुए, लेकिन पुराणों में विष्णु और शिव को अभिन्न माना गया है। इसीलिए विष्णु का वर्ण शिव में दृष्टिगोचर होता है, जबकि शिव की नीलिमा विष्णु में। शिव शांत हैं और रुद्र भी। वे श्रीराम के आराध्य हैं तो रावण ने भी अजेय शक्ति व गुह्य विद्याएं उन्हीं से प्राप्त कीं। शिव पूजन की विधि व्रत धारण कर पहले प्रहर में स्नान करके पशुपतये नम: का उच्चारण करते हुए स्वच्छ आसन पर बैठकर पूरब या उत्तर की ओर मुख कर संकल्प करें और कहें - मैं शिव की संतुष्टि हेतु व्रत रखकर शिवपूजन कर रहा हूं। शिवलिंग पर केवल पंचामृत (दूध, दही, शहद, घी, शक्कर व गंगाजल), बेलपत्र, कनेर श्वेतार्क (सफेद आखा) व धतूरे के फूल, कमलगट्टा व नीलकमल चढ़ाकर पूजन करना चाहिए। शिवभक्त को रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए। दिव्य पांच वस्तुओं से मिश्रित पंचामृत या गंगाजल से शिवलिंग को स्नान कराते समय ॐ नम: शिवाय का जाप करते रहें। पंचामृत की अलग-अलग दिव्य वस्तुओं से शिवलिंग को स्नान कराना हो तो इस तरह मंत्रोच्चार करें: ॐ ईशानाय नम:, ॐ अघोराय नम:, ॐ वासुदेवाय नम:, ॐ सद्योजाताय नम:, ॐ तत्पुरुषाय नम:। ऐसे होगी सर्वकार्य सिद्धि सावन के महीने में किसी भी कार्यसिद्धि हेतु पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का शिव मंदिर में बैठकर नित्य जप करते रहें और 100 माला जप कर चुकें तब ॐ शिवाय स्वाहा कहकर हवन करना चाहिए। राहुकाल में न करें जलाभिषेक यूं तो जलाभिषेक किसी भी वक्त करने की कोई मनाही नहीं है, लेकिन पंचांगीय दृष्टि से राहुकाल को इसके लिए निषेध माना गया है। आज राहुकाल प्रात: 7.30 से 9.00 बजे तक रहेगा, जबकि गुलीक काल (शुभ समय) दोपहर 1.30 से 3.00 बजे तक है। एक बात और। प्रतिदिन 11.37 से 12.24 बजे तक अभिजित नक्षत्र रहता है। इस दौरान सभी ग्रह-नक्षत्र निस्तेज हो जाते हैं। इस अवधि में भी जलाभिषेक करना श्रेष्ठ है। वर्जित हैं अभक्ष्य पदार्थ वैसे तो अभक्ष्य (तामसी वृत्ति वाले) पदार्थो, यानी मांस-मदिरा आदि का सेवन सर्वकालिक वर्जित है, लेकिन सावन के महीने तो इनके बारे में सोचना भी पाप माना गया है। इसके अलावा सरसों के तेल को भी निषेध किया गया है। इसलिए सात्विक रहकर ही शिव पूजन करना चाहिए।

रुद्राक्ष की उत्पत्ति और महत्व

रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से मानी जाती है। इस बारे में पुराण में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं एक बार भगवान शिव ने अपने मन को वश में कर दुनिया के कल्याण के लिए सैकड़ों सालों तक तप किया। एक दिन अचानक ही उनका मन दु:खी हो गया। जब उन्होंने अपनी आंखें खोलीं तो उनमें से कुछ आंसू की बूंदे गिर गई। इन्हीं आंसू की बूदों से रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हुआ। शिव भगवान हमेशा ही अपने भक्तों पर कृपा करते हैं। उनकी लीला से ही उनके आंसू ठोस आकार लेकर स्थिर(जड़) हो गए। जनधारणा है कि यदि शिव-पार्वती को प्रसन्न करना हो तो रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। एक मुखी रूद्राक्ष के चक्कर में कदापि न पडें ,यह दुर्लभ है , अधिकांश लोग
ठग का शिकार होते हैं ।

रुद्राक्ष की श्रेणी

रुद्राक्ष को आकार के हिसाब से तीन भागों में बांटा गया है-

1- उत्तम श्रेणी- जो रुद्राक्ष आकार में आंवले के फल के बराबर हो वह सबसे उत्तम माना गया है।

2- मध्यम श्रेणी- जिस रुद्राक्ष का आकार बेर के फल के समान हो वह मध्यम श्रेणी में आता है।

3- निम्न श्रेणी- चने के बराबर आकार वाले रुद्राक्ष को निम्न श्रेणी में गिना जाता है।

जिस रुद्राक्ष को कीड़ों ने खराब कर दिया हो या टूटा-फूटा हो, या पूरा गोल न हो। जिसमें उभरे हुए दाने न हों। ऐसा रुद्राक्ष नहीं पहनना चाहिए।वहीं जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के लिए छेद हो गया हो, वह उत्तम होता है।

मंत्र शक्तियों पर भरोसा करना चाहिए


इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और ही है, इंसान को नजर कुछ और आता है तथा निकलता कुछ और है। इस दुनिया जहान में जाने कितने ऐसे रहस्य हैं जिनसे अभी पर्दा उठना बाकी है। कई बार लाख प्रयास करने के बावजूद कोई सफलता हाथ नहीं लगती, तो कभी बिना हाथ हिलाए ही हर रुकावट दूर हो जाती है तथा जीवन में सफलताओं की झड़ी लग जाती है। ऐसे में वैज्ञानिक सोच वाले आधुनिक मनुष्य को भी इन अद्भुत रहस्य भरी बातों और चमत्कारों पर भरोसा करना ही पड़ता है। कुछ ऐसे विलक्षण उपाय जो दीखने में भले ही अतिसामान्य प्रतीत होते हैं किन्तु परिणाम में उतने ही कारगर एवं असरदार होते हैं। श्री राम के अनन्य भक्त एवं साधक गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामायण की कुछ चौपाइयां ऐसी हैं जो आश्चर्यजनक रुप से सिद्ध मंत्रों की तरह चमत्कारी असर करती हैं। हर इंसान के जीवन में अनचाहे ही कुछ विकट समस्याएं आ जाती हैं, जिनसे छुटकारा पाने के लिये  उपायों को ईश्वर की कृपा मानकर अवश्य प्रयोग करें ।

Tuesday, July 20, 2010

सुखी जीवन के लिये वास्तु

यद्यपि गृहस्थ जीवन में या व्याहारिक जीवन में कोई भी छोटा सा कारण एक बड़े कारण में परिवर्तित हो जाता है। चाहे वह आर्थिक हो या घर के अन्य सदस्यों को लेकर हो। इसका सीधा प्रभाव पति-पत्नी के आपसी रिश्तों पर पड़ता है। इसलिए घर का वातावरण ऐसा होना चाहिए कि ऋणात्मक उर्जा कम हो और सकारात्मक उर्जा अधिक क्रियाशील हों । ऐसा वास्तु के द्वारा संभव
हो सकता है।घर के ईशान कोण का बहुत ही महत्व है। यदि पति-पत्नी साथ बैठकर पूजा करें तो उनका आपस का मन मुटाव सतत कम होने लगता है खत्म होकर संबंधों में मधुरता बढ़ेगी। गृहलक्ष्मी द्वारा संध्या के समय तुलसी में दीपक जलाने से नकारात्मक शक्तियों को कम किया जा सकता है। घर के हर कमरे के ईशान कोण को साफ रखें, विशेषकर शयनकक्ष के।पति-पत्नी में आपस में मन मुटाव का एक कारण सही दिशा में शयनकक्ष का न होना भी है। अगर दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में स्थित कोने में बने कमरों में आपकी आवास व्यवस्था नहीं है तो संबंध बहुत अच्छे नही रहते हैं।दक्षिण दिशा का स्वामी यम, शक्ति एवं विश्रामदायक है। घर में आराम से सोने के लिए दक्षिण एवं नैऋत्य कोण उपयुक्त माना गया है। शयनकक्ष में पति-पत्नी का सामान्य फोटो होने के बजाए हंसता हुआ हो, तो अच्छा माना जाता है ।घर के अंदर घर के ईशान कोण में अगर शौचालय है तो पति-पत्नी का जीवन बड़ा अशांत रहता है। आर्थिक संकट व संतान सुख में कमी आती है। इसलिए शौचालय हटा देना ही उचित है। अगर हटाना संभव न हो तो शीशे के एक बर्तन में समुद्री नमक रखें। यह अगर सील जाए तो बदल दें। अगर यह संभव न हो तो मिट्टी के एक बर्तन में सेंधा नमक डालकर रखें।घर के अंदर यदि रसोई सही दिशा में नहीं है तो ऐसी अवस्था में पति-पत्नी के विचार कभी नहीं मिलेंगे। रिश्तों में कड़वाहट दिनों-दिन बढ़ेगी। कारण अग्नि का कहीं
ओर जलना। रसोई घर की सही दिशा है आग्नेय कोण। अगर आग्नेय दिशा में संभव नहीं है तो अन्य वैकल्पिक दिशाएं हैं। आग्नेय एवं दक्षिण के बीच, आग्नेय एवं पूर्व के बीच, वायव्य एवं उत्तर के बीच।जीवन को सुखद एवं समृद्ध बनाना चाहते हैं और अपेक्षा करते हैं कि जीवन के सुंदर स्वप्न को साकार कर सकें। इसके लिए पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा से वास्तु के उपायों को अपनाकर अपने जीवन में खुशहाली लाएं। प्रभु के प्रति श्रद्धावनत रहें ,कल्याण सुनिश्चित है ।

Monday, July 19, 2010

दाम्पत्य सुख के लिए कुछ कारगर उपाय



१॰ यदि जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादश स्थान स्थित मंगल होने से जातक को मंगली योग होता है इस योग के होने से जातक के विवाह में विलम्ब, विवाहोपरान्त पति-पत्नी में कलह, पति या पत्नी के स्वास्थ्य में क्षीणता, तलाक एवं क्रूर मंगली होने पर जीवन साथी की मृत्यु तक हो सकती है। अतः जातक मंगल व्रत। मंगल मंत्र का जप, घट विवाह आदि करें।

२॰ सप्तम गत शनि स्थित होने से विवाह बाधक होते है। अतः “ॐ शं शनैश्चराय नमः” मन्त्र का जप ७६००० एवं ७६०० हवन शमी की लकड़ी, घृत, मधु एवं मिश्री से करवा दें।
३॰ राहु या केतु होने से विवाह में बाधा या विवाहोपरान्त कलह होता है। यदि राहु के सप्तम स्थान में हो, तो राहु मन्त्र “ॐ रां राहवे नमः” का ७२००० जप तथा दूर्वा, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें। केतु स्थित हो, तो केतु मन्त्र “ॐ कें केतवे नमः” का २८००० जप तथा कुश, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें।
४॰ सप्तम भावगत सूर्य स्थित होने से पति-पत्नी में अलगाव एवं तलाक पैदा करता है। अतः जातक आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ रविवार से प्रारम्भ करके प्रत्येक दिन करे तथा रविवार कप नमक रहित भोजन करें। सूर्य को प्रतिदिन जल में लाल चन्दन, लाल फूल, अक्षत मिलाकर तीन बार अर्ध्य दें।
५॰ जिस जातक को किसी भी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो नवरात्री में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक ४४००० जप निम्न मन्त्र का दुर्गा जी की मूर्ति या चित्र के सम्मुख करें।
“ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।।”
६॰ किसी स्त्री जातिका को अगर किसी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो श्रावण कृष्ण सोमवार से या नवरात्री में गौरी-पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जप करना चाहिए-
“हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी कान्त कान्तां सुदुर्लभाम।।”
७॰ किसी लड़की के विवाह मे विलम्ब होता है तो नवरात्री के प्रथम दिन शुद्ध प्रतिष्ठित कात्यायनि यन्त्र एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें एवं यन्त्र का पंचोपचार से पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जइ लड़की स्वयं या किसी सुयोग्य पंडित से करवा सकते हैं।
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोप सुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।”
८॰ जन्म कुण्डली में सूर्य, शनि, मंगल, राहु एवं केतु आदि पाप ग्रहों के कारण विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो गौरी-शंकर रुद्राक्ष शुद्ध एवं प्राण-प्रतिष्ठित करवा कर निम्न मन्त्र का १००८ बार जप करके पीले धागे के साथ धारण करना चाहिए। गौरी-शंकर रुद्राक्ष सिर्फ जल्द विवाह ही नहीं करता बल्कि विवाहोपरान्त पति-पत्नी के बीच सुखमय स्थिति भी प्रदान करता है।
“ॐ सुभगामै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्।।”
९॰ “ॐ गौरी आवे शिव जी व्याहवे (अपना नाम) को विवाह तुरन्त सिद्ध करे, देर न करै, देर होय तो शिव जी का त्रिशूल पड़े। गुरु गोरखनाथ की दुहाई।।”
उक्त मन्त्र की ११ दिन तक लगातार १ माला रोज जप करें। दीपक और धूप जलाकर ११वें दिन एक मिट्टी के कुल्हड़ का मुंह लाल कपड़े में बांध दें। उस कुल्हड़ पर बाहर की तरफ ७ रोली की बिंदी बनाकर अपने आगे रखें और ऊपर दिये गये मन्त्र की ५ माला जप करें। चुपचाप कुल्हड़ को रात के समय किसी चौराहे पर रख आवें। पीछे मुड़कर न देखें। सारी रुकावट दूर होकर शीघ्र विवाह हो जाता है।
१०॰ जिस लड़की के विवाह में बाधा हो उसे मकान के वायव्य दिशा में सोना चाहिए।
११॰ लड़की के पिता जब जब लड़के वाले के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें तो लड़की अपनी चोटी खुली रखे। जब तक पिता लौटकर घर न आ जाए तब तक चोटी नहीं बाँधनी चाहिए।
१२॰ लड़की गुरुवार को अपने तकिए के नीचे हल्दी की गांठ पीले वस्त्र में लपेट कर रखे।
१३॰ पीपल की जड़ में लगातार १३ दिन लड़की या लड़का जल चढ़ाए तो शादी की रुकावट दूर हो जाती है।
१४॰ विवाह में अप्रत्याशित विलम्ब हो और जातिकाएँ अपने अहं के कारण अनेल युवकों की स्वीकृति के बाद भी उन्हें अस्वीकार करती रहें तो उसे निम्न मन्त्र का १०८ बार जप प्रत्येक दिन किसी शुभ मुहूर्त्त से प्रारम्भ करके करना चाहिए।
“सिन्दूरपत्रं रजिकामदेहं दिव्ताम्बरं सिन्धुसमोहितांगम् सान्ध्यारुणं धनुः पंकजपुष्पबाणं पंचायुधं भुवन मोहन मोक्षणार्थम क्लैं मन्यथाम।
महाविष्णुस्वरुपाय महाविष्णु पुत्राय महापुरुषाय पतिसुखं मे शीघ्रं देहि देहि।।”
१५॰ किसी भी लड़के या लड़की को विवाह में बाधा आ रही हो यो विघ्नकर्ता गणेशजी की उपासना किसी भी चतुर्थी से प्रारम्भ करके अगले चतुर्थी तक एक मास करना चाहिए। इसके लिए स्फटिक, पारद या पीतल से बने गणेशजी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्टित, कांसा की थाली में पश्चिमाभिमुख स्थापित करके स्वयं पूर्व की ओर मुँह करके जल, चन्दन, अक्षत, फूल, दूर्वा, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजा करके १०८ बार “ॐ गं गणेशाय नमः” मन्त्र पढ़ते हुए गणेश जी पर १०८ दूर्वा चढ़ायें एवं नैवेद्य में मोतीचूर के दो लड्डू चढ़ायें। पूजा के बाद लड्डू बच्चों में बांट दें।
यह प्रयोग एक मास करना चाहिए। गणेशजी पर चढ़ये गये दूर्वा लड़की के पिता अपने जेब में दायीं तरफ लेकर लड़के के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें।
१६॰ तुलसी के पौधे की १२ परिक्रमायें तथा अनन्तर दाहिने हाथ से दुग्ध और बायें हाथ से जलधारा तथा सूर्य को बारह बार इस मन्त्र से अर्ध्य दें- “ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्त्र किरणाय मम वांछित देहि-देहि स्वाहा।”
फिर इस मन्त्र का १०८ बार जप करें-
“ॐ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्र प्रिय यामिनि। विवाहं भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।”
१७॰ गुरुवार का व्रत करें एवं बृहस्पति मन्त्र के पाठ की एक माला आवृत्ति केला के पेड़ के नीचे बैठकर करें।
१८॰ कन्या का विवाह हो चुका हो और वह विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी-सी हल्दी, एक सिक्का डाल कर लड़की के सिर के ऊपर ७ बार घुमाकर उसके आगे फेंक दें। उसका वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।
१९॰ जो माता-पिता यह सोचते हैं कि उनकी पुत्रवधु सुन्दर, सुशील एवं होशियार हो तो उसके लिए वीरवार एवं रविवार के दिन अपने पुत्र के नाखून काटकर रसोई की आग में जला दें।
२०॰ विवाह में बाधाएँ आ रही हो तो गुरुवार से प्रारम्भ कर २१ दिन तक प्रतिदिन निम्न मन्त्र का जप १०८ बार करें-
“मरवानो हाथी जर्द अम्बारी। उस पर बैठी कमाल खां की सवारी। कमाल खां मुगल पठान। बैठ चबूतरे पढ़े कुरान। हजार काम दुनिया का करे एक काम मेरा कर। न करे तो तीन लाख पैंतीस हजार पैगम्बरों की दुहाई।”
२१॰ किसी भी शुक्रवार की रात्रि में स्नान के बाद १०८ बार स्फटिक माला से निम्न मन्त्र का जप करें-
“ॐ ऐं ऐ विवाह बाधा निवारणाय क्रीं क्रीं ॐ फट्।”
२२॰ लड़के के शीघ्र विवाह के लिए शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को ७० ग्राम अरवा चावल, ७० सेमी॰ सफेद वस्त्र, ७ मिश्री के टुकड़े, ७ सफेद फूल, ७ छोटी इलायची, ७ सिक्के, ७ श्रीखंड चंदन की टुकड़ी, ७ जनेऊ। इन सबको सफेद वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु व्यक्ति घर के किसी सुरक्षित स्थान में शुक्रवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२३॰ लड़की के शीघ्र विवाह के लिए ७० ग्राम चने की दाल, ७० से॰मी॰ पीला वस्त्र, ७ पीले रंग में रंगा सिक्का, ७ सुपारी पीला रंग में रंगी, ७ गुड़ की डली, ७ पीले फूल, ७ हल्दी गांठ, ७ पीला जनेऊ- इन सबको पीले वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु जातिका घर के किसी सुरक्षित स्थान में गुरुवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।

शनि शांति के उपाय

शनि ग्रह शांति उपाय
1.नीले रंग के कपड़ों का अधिक प्रयोग करें।
2.शनिवार के दिन मांगने वाले अपंग, नेत्रहीन, कोढ़ी, अत्यंत वृद्ध या गली के कुत्तों को खाने की सामग्री दें।
3.पीपल या शमी के  पेड़ के नीचे शनिवार संध्याकाल में तिल का दीपक जलाएं।
4.समर्थ हैं तो काली भैंस, जूता, काला वस्त्र, तिल, उड़द का दान सफाई करने वालों को दें।
5.सरसों तेल की मालिश करें व आंखों में सुरमा लगाएं।
6.पानी में सौंफ, खिल्ला या लोबान मिलाकर स्नान करें।
7.लोहे का छल्ला मध्यम अंगुली में शनिवार से धारण करें।
8.लोहे की कटोरी में सरसों तेल में अपना चेहरा देखकर दान करें।
9.घर के या पड़ोस के बुजुर्गो की सेवा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।
10.शमी की जड़ काले कपड़े में बांध कर बांह में बांधें।

राहु शांति के उपाय


1.बहते हुए पानी में कोयला, लोहा या नारियल प्रवाहित करें।
2.सफाई कर्मचारी को लाल मसूर दाल तथा रुपये दान करें।
3.चादी के बने सामान/आभूषण का प्रयोग करें।
4.गरीब की लड़की के विवाह में आर्थिक मदद करें।
5.तम्बाकू का सेवन नहीं करें।
6.घर में अस्त्र-शस्त्र न रखें।
7.नीला वस्त्र, इलेक्ट्रिक/इलेक्ट्रानिक उपकरण या स्टील के बर्तन उपहार में न लें।
8.घर में कुत्ता न पालें।
9.दक्षिणमुखी द्वार वाले घर में न रहें।
10.गरीब व्यक्ति को सरसों, मूली, नीले रंग का कपड़ा दान करें।

केतु शांति के उपाय



1. एक से अधिक रंग के कुत्तों या गाय को खाने का सामग्री दें।
2.कोयले के आठ टुकड़े बहते पानी में प्रवाहित करें।
3.नेत्रहीन, कोढ़ी, अपंग को एक से अधिक रंग का कपड़ा दान करें।
4.भगवान गणेश/बजरंग बली की पूजा आराधना करें।
5.काले या सफेद तिल को काले वस्त्र में बांधकर बहते पानी में प्रवाहित करें।
6.पानी में लोबान मिलाकर स्नान करें।
7.कुश का बना आसन पूजा के दौरान प्रयोग करें।
8 काले रंग का रुमाल अपने छोटे भाई या मित्र को उपहार में दें।
9.नींबू, केला या चांदी का बना आभूषण दान करें।

Saturday, July 17, 2010

गुरू-पूर्णिमा

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। [१]

यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। [३]अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। [क] बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। [ख]

भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं।

विमोचन रामसेतु विशेषांक


Posted by Picasa भाग्योत्कर्ष,bhagyotkarsh  के रामसेतु विशेषांक (मार्च2008) का  विमोचन किया प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने । इस शुभ अवसर पर राजधानी रायपुर के महापौर सुनील सोनी  , अध्यक्ष अंत्यावसायी निगम  विजय गूरु  ,पत्रकार बाबूलाल शर्मा ,साथी पारस वाधवानी  एवम पत्र के संपादक आशुतोष मिश्र  सहित अनेक शुभ चिन्तक उपस्थित थे ।  

विमोचन

Posted by Picasaपत्रिका का विमोचन  जयपुर राजस्थान में पूज्यपाद जगदगुरु शंकराचार्य द्वारका शारदा एवम ज्योतिष्पीठाधीश्वर अंनत विभूषित स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती  महाराज जी के पावन करकमलों  द्वारा किया गया । पत्रिका के संपादक आशुतोष मिश्र , महाराज जी के सम्मुख विमोचन के लिए पत्रिका प्रस्तुत करते हुए परिलक्षित हो रहे हैं।                                           -  भाग्योत्कर्ष की प्रस्तुती । 

श्री शंकराचार्य आश्रम में 25 जुलाई को गुरु पूर्णिमा पर विशेष पूजा - अर्चना

पूज्यपाद जगदगुरु शंकराचार्य, द्वारका - शारदा एवम ज्योतिष्पीठाधीश्वर अनंत विभूषित श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के रायपुर बोरिया कला स्थित आश्रम में 25 जुलाई 2010 को गुरु पुर्णिमा के पावन अवसर पर भगवान के भक्तजनों के लिए पुजन-अर्चन का विशेष आयोजन किया गया है । कार्यक्रम की जानकारी बह्मचारी इंदुभावानन्द जी ने भाग्योत्कर्ष को दी  । बह्मचारी जी ने जानकारी दी है कि रविवार 25 जुलाई को प्रातः काल भूतेश्वर भगवान देवाधिदेव महादेव जी का विशेष अभिषेक किया जायेगा , शिव जी की पूजा - अर्चना ,विशेष श्रृंगार किया जायेगा । तदुपरांत माता भगवती राज राजेश्वरी माँ त्रिपुर सुंदरी ललिता प्रेमाम्बा जी का अभिषेक , पूजन-अर्चन  , विशिष्ट श्रृंगार, आरती महाभोग किया जायेगा । इसके पश्चात श्री गुरु परम्परा और पादुका पूजन का कार्यक्रम होगा । तदुपरांत गुरु गोष्ठी का आयोजन किया जायेगा । अपरान्ह भोग प्रसाद का वितरण (भण्डारा) का आयोजन किया गया है  । संध्या पूजा के मंगल अवसर पर माता भगवती राज राजेश्वरी माँ त्रिपुर सुंदरी ललिता प्रेमाम्बा जी का  पूजन-अर्चन  हजारों गुलाब के पुष्पों के द्वारा किया जायेगा । इस शुभ प्रसंग पर समूचे प्रदेश से श्रद्धालुजन आश्रम में दर्शन लाभ लेने पंहुचेंगे ।

Monday, July 12, 2010

ईश्वर का वाचक है " ॐ "

ॐ (ओम) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है । संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकार रूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है । इन मंत्रों के वाच्य आत्मा की देवता रूप से प्रसिद्धि है। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रहकर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं । इनमें से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में  ।
ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुंडकोपनिषत् में लिखा है:

प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।

कठोपनिषत् में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथनरूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्वका साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंच शून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों अभिन्न तत्व हैं।

वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है।

क्यों की जाती है, सबसे पहले पूजा "श्री गणेश जी" की

श्री गणेश की पूजा सबसे पहले क्यों की जाती है, इस संबंध में बहुत रोचक कथा प्रचलित है। एक बार भगवान शिव के समक्ष गणेश और कार्तिकेय दोनों भाइयों के बीच इस बात को लेकर विवाद हो गया कि दोनों में बडा कौन है। यह सुनकर भगवान शिव ने कहा कि जो अपने वाहन के साथ सबसे पहले समस्त ब्रह्मांड की परिक्रमा करके मेरे पास लौट आएगा वही बडा माना जाएगा। यह सुनते ही भगवान कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर सवार ब्रह्मांड की परिक्रमा के लिए निकल पडे। लेकिन भगवान गणेश ने अपने वाहन चूहे पर बैठ कर माता-पिता की परिक्रमा की और सबसे पहले उनके सामने हाथ जोडकर खडे हो गए। उन्होंने कहा कि मेरी परिक्रमा पूरी हो गई क्योंकि मेरा संसार मेरे माता-पिता में ही निहित है। बालक गणेश का यह बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर सुनकर भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें प्रथम पूज्य होने का वरदान दिया। श्री गणेश जी केवल भारत में ही नहीं बल्कि जावा, बर्मा (म्यांमार), चीन, जापान, तिब्बत, श्रीलंका, थाइलैंड आदि देशों में भी विभिन्न नामों से पूजनीय हैं ।स्कंद पुराण के अनुसार भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को भगवान गणेश का अवतार हुआ था। इसीलिए इस दिन हर्षोल्लास के साथ गणेश चतुर्थी का त्योहार मनाया जाता है और दस दिनों के बाद अनंत चतुदर्शी के दिन धूमधाम के साथ गणपति का विसर्जन किया जाता है। दीपावली के अवसर पर भारत एवं कई अन्य देशों में हिंदू-धर्मावलंबी परिवारों में महालक्ष्मी जी और भगवान श्रीगणेश का पूजन होता है। महालक्ष्मी धन की देवी हैं। श्रीगणेश सभी विघ्नों के नाशक और सुबुद्धि प्रदान करने वाले हैं। इसीलिए देवी लक्ष्मी के साथ हमेशा गणेश की भी पूजा की जाती है। गणेश जी ऐसे देवता हैं, जिनकी पूजा-अर्चना हिंदू परिवारों के प्रत्येक धार्मिक आयोजनों में सबसे पहले की जाती है। गणेश जी की उत्पति और इनके प्रथम पूज्य होने के संबंध में विभिन्न पुराणों में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं।

भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा

हमारे यहां चार तीर्थ स्थल चार धाम के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये हैं- बद्रीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम् और जगन्नाथ पुरी । जगन्नाथ  पुरी में भगवान जगन्नाथ की पूजा होती है। उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी "महा प्रभु" ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है।

पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। ''सब मनिसा मोर परजा'' (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, की ही तरह "पुरी" का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मंदिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।

माँ बम्लेश्वरी देवी मंदिर ड़ोंगरगढ़

माँ बम्लेश्वरी देवी के मंदिर के लिए विख्यात है डोंगरगढ़ ।एक ऐतिहासिक नगरी है । यहाँ माँ बम्लेश्वरी देवी के दो मंदिर है ।पहला एक हजार फीट पहाड़ी पर स्थित है जो कि बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है तथा इसके समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है ।माँ बम्लेश्वरी के मंदिर में प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो विराट मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे लाखो कि संख्या में दर्शनार्थी भाग लेते है । चारों ओर हरे भरे वनों, पहाडियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्चिम में पनियाजोब जलाशय, उत्तर में ढारा जलाशय तथा दक्षिण में मदियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण स्थान है डोंगरगढ़ ।

कामाख्या नगरी व डुंगराख्य नगर नमक प्राचीन नामो से विख्यात डोंगरगढ़ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी काल का निर्माण बताया है ।

मां महामाया की अद्‌भुत प्रतिमा रतनपुर में

बिलासपुर-अंबिकापुर राजमार्ग (छत्तीसगढ़) में बिलासपुर से 25 किलोमीटर पर ऐतिहासिक रत्नपुर (अब रतनपुर) की नगरी में स्थित दर्जनों छोटे मंदिर, स्तूप, किले तथा अन्य निर्माणों के पुरावशेष मानों अपनी कहानी बताने के लिये तत्पर हैं।

रतनपुर का इतिहास लगभग एक सहस्त्राब्द से भी पुराना है।
यह मान्यता है कि मां महामाया देवी का प्रथम अभिषेक एवं पूजा कलिंग के महाराज रत्न देव ने ईस्वी सन्‌ 1050 में इसी स्थान पर की थी, जब उन्होंने अपनी राजधानी तुमान को रत्नपुर स्थानांतरित किया था। रणनीतिक दॄष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण राजा रत्नदेव एवं उनके उत्तराधिकारियों ने रत्नपुर को राजधानी बनाकर यहां विभिन्न राजप्रासाद, किले तथा मंदिरों का निर्माण करवाया जिनके पुरावशेषों को आज भी देखा जा सकता है।
मंदिर के मुख्य परकोटे के अंदर, प्रसिद्ध कंठी देवल मंदिर तथा मुख्य ताल के सामने मां महामाया की अद्‌भुत प्रतिमा द्वय है: सामने की प्रतिमा मां महिषासुर मर्दिनी की तथा पीछे की मां सरस्वती की मानी जाती है। वैसे, सरसरी निगाह से देखने वाले को पीछे की प्रतिमा दिखाई नहीं देती। नवरात्र के समय न सिर्फ देश के कोने कोने से वरन देश के बाहर से लाखों की संख्या में श्रद्धालुगण मंदिर पहुंचकर मां के दर्शन कर तथा अर्चना कर अपने आपको धन्य समझते हैं।

Sunday, July 11, 2010

माँ दंतेश्वरी ,दंतेवाड़ा बस्तर छत्तीसगढ़

बस्तर को यदि देवी-देवताओं की भूमि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहाँ के हर गाँव के अपने देवी-देवता हैं। हर गाँव में “देव गुड़ी” होती है, जहाँ किसी न किसी देवी-देवता का निवास होता है। लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग बिरंगी फूलों की माला से सजे विभिन्न आकृतियों वाली आकर्षक मूर्तियाँ प्रत्येक देव गुड़ी में देखने को मिल जायेगी। ये यहाँ के गाँवों के आस्था के केंद्र हैं। सम्पूर्ण बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहाँ के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। भारत के शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहाँ की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुई, ऐसा विश्वास किया जाता है। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसाया गया जो आज दंतेवाड़ा जिला का मुख्यालय है।

Thursday, July 8, 2010

बारसुर बस्तर के श्री गणेश

छत्तीसगढ़ में बस्तर आदिवासी संस्कृति और हस्तशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है ।यहां पहाड़ी गुफाओं और जल प्रपातों की लंबी श्रृंखला है। अंधी मछलियों के लिए प्रसिद्ध कुटुमसर गुफा तिलस्म का संसार है। अरण्यक गुफा, कैलाश गुफा, मकर गुफा, मरप गुफा और कनक गुफा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। एशिया का नियाग्रा नाम से विख्यात चित्रकोट जलप्रपात इन्द्रावती नदी के घाटी में गिरने से बना है । इसी तरह कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात बेहद सुंदर है। दन्तेश्वरी में  माँ दन्तेश्वरी जी  का प्राचीन  मंदिर और बारसुर में भगवान श्री गणेश की विशाल विग्रह अद्भुत है।

पितृ दोष से क्यों और कैसे बचें ?

कुन्डली का नवां घर धर्म का घर कहा जाता है,यह पिता का घर भी होता है,अगर किसी प्रकार से नवां घर खराब ग्रहों से ग्रसित होता है तो सूचित करता है कि पूर्वजों की इच्छायें अधूरी रह गयीं थी,जो प्राकृतिक रूप से खराब ग्रह होते है वे सूर्य मंगल शनि कहे जाते है और कुछ लगनों में अपना काम करते हैं,लेकिन राहु और केतु सभी लगनों में अपना दुष्प्रभाव देते हैं,मैने देखा है कि नवां भाव,नवें भाव का मालिक ग्रह,नवां भाव चन्द्र राशि से और चन्द्र राशि से नवें भाव का मालिक अगर राहु या केतु से ग्रसित है तो यह पितृ दोष कहा जाता है। इस प्रकार का जातक हमेशा किसी न किसी प्रकार की टेंसन में रहता है,उसकी शिक्षा पूरी नही हो पाती है,वह जीविका के लिये तरसता रहता है,वह किसी न किसी प्रकार से दिमागी या शारीरिक रूप से अपंग होता है,अगर किसी भी तरह से नवां भाव या नवें भाव का मालिक राहु या केतु से ग्रसित है तो यह सौ प्रतिशत पितृदोष के कारणों में आजाता है। मै यहां पर पितृदोष को दूर करने का एक बढिया उपाय बता रहा हूँ,यह एक बार की ही पूजा है,और यह पूजा किसी भी प्रकार के पितृदोष को दूर करती है। सोमवती अमावस्या को (जिस अमावस्या को सोमवार हो) पास के पीपल के पेड के पास जाइये,उस पीपल के पेड को एक जनेऊ दीजिये और एक जनेऊ भगवान विष्णु के नाम का उसी पीपल को दीजिये,पीपल के पेड की और भगवान विष्णु की प्रार्थना कीजिये,और एक सौ आठ परिक्रमा उस पीपल के पेड की दीजिये,हर परिक्रमा के बाद एक मिठाई जो भी आपके स्वच्छ रूप से हो पीपल को अर्पित कीजिये। परिक्रमा करते वक्त :ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप करते जाइये। परिक्रमा पूरी करने के बाद फ़िर से पीपल के पेड और भगवान विष्णु के लिये प्रार्थना कीजिये और जो भी जाने अन्जाने में अपराध हुये है उनके लिये क्षमा मांगिये। सोमवती अमावस्या की पूजा से बहुत जल्दी ही उत्तम फ़लों की प्राप्ति होने लगती है। एक और उपाय है कौओं और मछलियों को चावल और घी मिलाकर बनाये गये लड्डू हर शनिवार को दीजिये। पितर दोष किसी भी प्रकार की सिद्धि को नहीं आने देता है। सफ़लता कोशों दूर रहती है और व्यक्ति केवल भटकाव की तरफ़ ही जाता रहता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति माता काली का उपासक है तो किसी भी प्रकार का दोष उसकी जिन्दगी से दूर रहता है। लेकिन पितर जो कि व्यक्ति की अनदेखी के कारण या अधिक आधुनिकता के प्रभाव के कारण पिशाच योनि मे चले जाते है,वे देखी रहते है,उनके दुखी रहने का कारण मुख्य यह माना जाता है कि उनके ही खून के होनहार उन्हे भूल गये है और उनकी उनके ही खून के द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है। पितर दोष हर व्यक्ति को परेशान कर सकता है इसलिये निवारण बहुत जरूरी है।


आगे के पांच साल में आने वाली सोमवती अमावस्यायें :-

29th August 2011

23rd Jan. 2012

15th October 2012

11th March 2013.

8th July 2013

2nd December 2013

25th August 2014

22nd December 2014