Thursday, March 31, 2011

चैत्र नवरात्रि



शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तथा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे चैत्र व शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है।

इस वर्ष नवरात्रि का पवित्र पर्व 4 अप्रैल 2011, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा; सोमवार से प्रारंभ हो रहा है। जीवन की रीढ़ कृषि व प्राणों की रक्षा हेतु इन दोनों ही ऋतुओं में लहलहाती हुई फसलें खेत-खलिहान में आ जाती हैं। इन फसलों के रखरखाव व कीट पंतगों से रक्षा हेतु, परिवार को सुखी व समृद्ध बनाने तथा कष्टों, दुःख-दरिद्रता से छुटकारा पाने के लिए सभी वर्ग के लोग नौ दिनों तक विशेष सफाई तथा पवित्रता को महत्व देते हुए नौ देवियों की आराधना, हवनादि यज्ञ क्रियाएँ करते हैं।

यज्ञ क्रियाओं द्वारा पुनः वर्षा होती है जो धन, धान्य से परिपूर्ण करती है तथा अनेक प्रकार की संक्रमित बीमारियों का अंत भी करती है। इस कर्मभूमि के सपूतों के लिए माँ 'दुर्गा' की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याणकारी है, जिस प्रकार घने तिमिर अर्थात्‌ अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण।

जिस व्यक्ति को बार-बार कर्म करने पर भी सफलता न मिलती हो, उचित आचार-विचार के बाद भी रोग पीछा न छोड़ते हो, अविद्या, दरिद्रता, (धनहीनता) प्रयासों के बाद भी आक्रांत करती हो या किसी नशीले पदार्थ भाँग, अफीम, धतूरे का विष व सर्प, बिच्छू आदि का विष जीवन को तबाह कर रहा हो। मारण-मोहन अभिचार के प्रयोग अर्थात्‌ (मंत्र-यंत्र), कुल देवी-देवता, डाकिनी-शाकिनी, ग्रह, भूत-प्रेत बाधा, राक्षस-ब्रह्मराक्षस आदि से जीना दुभर हो गया हो।

चोर, लुटेरे, अग्नि, जल, शत्रु भय उत्पन्न कर रहे हों या स्त्री, पुत्र, बाँधव, राजा आदि अनीतिपूर्ण तरीकों से उसे देश या राज्य से बाहर कर दिए हों, सारा धन राज्यादि हड़प लिए हो। उसे दृढ़ निश्चय होकर विश्वासपूर्वक माँ भगवती की शरण में जाना चाहिए। स्वयं व वैदिक मंत्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण की सहायता से माँ भगवती देवी की आराधना तन-मन-धन से करना चाहिए।

नवरात्रि में माँ भगवती की आराधना अनेक साधकों ने बताई है। किंतु सबसे प्रामाणिक व श्रेष्ठ आधार 'दुर्गा सप्तशती' है। जिसमें सात सौ श्लोकों के द्वारा भगवती दुर्गा की अर्चना-वंदना की गई है। नवरात्रि में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दुर्गा सप्तशती के श्लोकों द्वारा माँ-दुर्गा देवी की पूजा, नियमित शुद्वता व पवित्रता से की या कराई जाएँ तो निश्चित रूप से माँ प्रसन्न होकर इष्ट फल प्रदान करती हैं।

इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है। कलश स्थापना- राहु काल, यमघंट काल में नहीं करना चाहिए। इस पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजा, सुन्दर सर्वतोभद्र मंडल, स्वास्तिक, नवग्रहादि, ओंकार आदि की स्थापना विधवत शास्त्रोक्त विधि से करने या कराने तथा स्थापित समस्त देवी-देवताओं का आह्वान उनके 'नाम मंत्रो' द्वारा कर षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए जो विशेष फलदायिनी है।

ज्योति जो साक्षात्‌ शक्ति का प्रतिरूप है उसे अखंड ज्योति के रूप में शुद्ध देशी घी (गाय का घी हो तो सर्वोत्तम है) से प्रज्ज्वलित करना चाहिए। इस अखंड ज्योति को सर्वतोभद्र मंडल के अग्निकोण में स्थापित करना चाहिए। ज्योति से ही आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं। अखंड ज्योति का विशेष महत्व है जो जीवन के हर रास्ते को सुखद व प्रकाशमय बना देती है।

नवरात्रि में व्रत का विधान भी है जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों तक व्रत रखा जा सकता है। इस पर्व में सभी स्वस्थ व्यक्तियों को श्रद्धानुसार व्रत रखना चाहिए। व्रत में शुद्ध शाकाहारी व्यंजनों का ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वसाधारण व्रती व्यक्तियों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक व माँसाहारी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। व्रत में फलाहार अति उत्तम तथा श्रेष्ठ माना गया है।


नवरात्रि के व्रत का पारण (व्रत खोलना) दशमी में करना अच्छा माना गया है, यदि नवमी की वृद्धि हो तो पहली नवमी को उपवास करने के पश्चात्‌ दूसरे 10वें दिन पारण करने का विधान शास्त्रों में मिलता है। नौ कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा व सामर्थ्य अनुसार भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत शुभ व श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार भक्त अपनी शक्ति, धन, ऐश्वर्य व समृद्धि बढ़ाने, दुखों से छुटकारा पाने हेतु सर्वशक्ति रूपा माँ दुर्गा की पूजा-अर्चना कर जीवन को सफल बना सकते हैं ।

नवरात्रि में अपेक्षित नियमः पवित्रता, संयम तथा ब्रह्मचर्य का विशिष्ट महत्व है। धू्म्रपान, माँस, मंदिरा, झूठ, क्रोध, लोभ से बचें। पूजन के पूर्व जौ बोने का विशेष फल होता है। पाठ करते समय बीच में बोलना या फिर बंद करना अच्छा नहीं है, ऐसा करना ही पड़े तो पाठ का आरम्भ पुनः करें। पाठ मध्यम स्वर व सुस्पष्ट, शुद्ध चित्त होकर करें। पाठ संख्या का दशांश हवनादि करने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

दूर्वा (हरी घास) माँ को नहीं चढ़ाई जाती है। नवरात्रि में पहले, अंतिम और पूरे नौ दिनों का व्रत अपनी सामर्थ्य व क्षमता के अनुसार रखा जा सकता है।