Saturday, January 29, 2011



या ते अग्ने पर्वतस्येव धरासश्‍च‌न्ती पीपयद्देव चित्रा |
तामस्मभ्यं प्रमतिं जातवेदो वसो रास्व सुमतिं विश्‍व‌जन्याम् ||
ऋग्वेद 3|57|6

अर्थ -
या.............................जो
ते.............................तेरी
अग्ने.........................सबको ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित करनेवाले ! सबको आगे ले जानेवाले
देव...........................प्रकाशस्वरूप प्रभो !
पर्वतस्य+इव.................पर्वत की धारा के समान
असश्‍च‌न्ति...................संसक्त न होती हुई
चित्रा..........................विचित्र , अद्‍भुत
धारा..........................वेदमयी ज्ञानधारा
पीपयद्......................निरन्तर ज्ञान दान कर रही है, हे
वसो..........................सबको वसानेवाले,
जातवेदः.......................सबमें रहनेवाले, प्रत्येक पदार्थ के ज्ञाता ! सर्वज्ञ भगवन् !
असम‌भ्यम्...................हमें
ताम्..........................वह
प्रमतिम्......................उत्तम बोध देनेवाली
विश्‍व‌जन्याम्................सर्वजनहितकारिणी
सुमतिम्......................वेदरूप कल्याण-मति
रास्व.........................दो, दान करो |