ॐ (ओम) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है । संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकार रूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है । इन मंत्रों के वाच्य आत्मा की देवता रूप से प्रसिद्धि है। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रहकर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं । इनमें से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में ।
ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुंडकोपनिषत् में लिखा है:
प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।
कठोपनिषत् में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथनरूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्वका साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंच शून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों अभिन्न तत्व हैं।
वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है।