Thursday, September 9, 2010

हरितालिका तीज व्रत - पूजा

देश के कुछ भाग में यह पर्व आज 10 सितम्बर तो कुछ जगह 11 सितम्बर को मनाया जा रहा है । भविष्योत्तर पुराण के अनुसार भाद्र पद की शुक्ल तृतीया को हरितालिका व्रत किया जता है । इसमें मुहूर्त मात्र हो तो भी बाद की तिथि ग्राह्य की जाती है , क्योंकि द्वितीया पितामह और चतुर्थी पुत्र की तिथि है अतः द्वितीया का योग निषेध एवम चतुर्थी का योग श्रेष्ठ माना जाता है ।( इस वर्ष यह योग 11 सितम्बर को है)
यह व्रत स्त्रियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसे सबसे पहले गिरिराज हिमालय की पुत्री उमा (पार्वती) ने किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान शंकर उन्हें पति के रूप में प्राप्त हुए। व्रत की कथा से भगवती पार्वती की कठोर तपस्या, भोले नाथ शिव के प्रति उनकी दृढ निष्ठा, उनके असीम धैर्य व संयम तथा पतिव्रता के धर्म का परिचय मिलता है। कथा के श्रवण का उद्देश्य स्त्री के मनोबल को ऊंचा उठाना है। कथा का सार-संक्षेप यह है-पूर्वकाल में जब दक्षकन्या सती पिता के यज्ञ में अपने पति भगवान शिव की उपेक्षा होने पर भी पहुंच गई, तब उन्हें बडा तिरस्कार सहना पडा। पिता के यहां पति का अपमान देखकर वह इतनी क्षुब्ध हुई कि उन्होंने अपने आप को योगाग्निमें भस्म कर दिया। बाद में वे आदिशक्ति ही मैना और हिमाचल की तपस्या से संतुष्ट होकर उनके यहां पुत्री के रूप में प्रकट हुई। उस कन्या का नाम पार्वती पड़ा । इस जन्म में भी उनकी पूर्व-स्मृति अक्षुण्ण बनी रही और वे सदा भगवान शंकर के ध्यान में ही मग्न रहतीं। मनोनुकूल वर की प्राप्ति के लिए पार्वती जी तपस्यारत हो गई। पुत्री को अति कठोर तप करते देख पिता हिमाचल चिन्तित हो उठे। उन्होंने देवर्षि नारद के परामर्श पर अपनी बेटी उमा का विवाह भगवान विष्णु से करने का निश्चय किया। भगवान शिव की अनन्य उपासिका पार्वती को जब यह समाचार मिला तो उन्हें बडा आघात लगा। वे मुर्क्षित होकर पृथ्वी पर गिर पडीं। सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने उनसे अपने मन की बात बताई कि वे शिव शंकर जी के अलावा अन्य किसी से भी कदापि विवाह नहीं करेंगी। शिव जी के प्रति उमा के अनन्य प्रेम को जानकर सखियां बोलीं,-तुम्हारे पिता विष्णु जी के साथ विवाह कराने हेतु तुम्हें लेने के लिए आते ही होंगे। आओ जल्दी चलो, हम तुम्हें लेकर किसी घने जंगल में छुप जाएं। इस प्रकार सखियों के द्वारा हरण करने की तरह उमा को ले जाये जाने के कारण ही इस व्रत का नाम हरितालिका पडा- आलिभिर्हरितायस्मात्तस्मात्सा हरितालिका।
गहन वन की एक पर्वतीय कन्दरा के भीतर पार्वती जी ने शिवजी की बालू की मुर्ति बनाकर उनका पूजन किया। उस दिन भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया थी। उमा ने निर्जल-निराहार व्रत करते हुए दिन-रात शिव नाम-मंत्र का जप किया। पार्वती की सच्ची भक्ति एवं संकल्प की दृढता से प्रसन्न होकर सदा शिवप्रकट हो गए और उन्होंने उमा को पत्‍‌नी के रूप में वरण करना स्वीकार कर लिया। भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन पार्वती की दुष्कर तपस्या सफल हुई थी, तब से यह पावन तिथि स्त्रियों के लिए सौभाग्यदायिनी हो गई। सुहागिनें अपने पति की दीर्घायु और अखण्ड सौभाग्य की कामना से इस दिन बडी आस्था के साथ व्रत करती हैं। कुंवारी कन्याएं भी मनोवांछित वर की प्राप्ति हेतु यह व्रत बडे उत्साह के साथ करती हैं। स्त्रियां अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार हरितालिका तीज का व्रतोत्सव मनाती हैं। महिलाएं इस दिन नए वस्त्र को धारण करके पूजा करती हैं। मिट्टी की शिव-पार्वती की मूर्तियों का विधिवत पूजन करके हरितालिका तीज की कथा को सुना जाता है। भवानी माता को सुहाग का सारा सामान चढाया जाता है। इस व्रत के शास्त्रोक्त विधान में तो इस दिन निर्जल उपवास का ही निर्देश है।
जिन कन्याओं के विवाह में विघ्न-बाधा के कारण अनावश्यक विलम्ब हो रहा हो वे युवतियां भाद्रपद शुक्ल तृतीया (हरितालिका तीज)के दिन जगदम्बा पार्वती का पूजन एवं व्रत करें ।