Saturday, December 25, 2010

किस चौपाई से क्या लाभ और फल मिलेगा, जानिए


1पुत्र प्राप्ति के लियेप्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान ॥
2क्लेश निवारण के लियेहरन कठिन कलि कलुष कलेसू ।
महा मोह निसि दलन दिनेसू ॥
3महामारी से बचाव के लियेजय रघुबंस बनज बन भानू ।
गहन दनुज कुल दहन कृसानू ॥
4धन प्राप्ति के लियेजिमि सरिता सागर महुं जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
तिमि सुख संपति बिनहि बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं॥
5रोग शान्ति के लियेदैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहीं काहुहि व्यापा॥
6मानसिक परेशानी दूर करने के लियेहनुमान अंगद रन गाजे।
हॉक सुनत रजनीचर भाजे॥
7अकाल मृत्यु निवारण के लियेनाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट॥
8संपत्ति के लियेजे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख संपत्ति नाना विधि पावहिं॥
9सुख के लियेसुनहि विमुक्त बिरत अरु विषई।
लहहि भगति गति सम्पति नई॥
10विद्या के लियेगुरु गृह गए पढ़न रघुराई।
अलप काल विद्या सब आई॥
11मनोरथ के लियेभव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि॥
12मुकदमा जीतने के लियेपवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिवेक विग्यान निधाना॥
13विजय पाने के लियेकर सारंग साजि कटि भाथा।
अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
14प्रेम बढाने के लियेसब नर करिहं परस्पर प्रीति।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
15परीक्षा में सफल होने के लियेजेहि पर कृपा करिह जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भांती। जासु कृपा नहीं कृपा अघाती॥
16निंदा से बचने के लियेराम कृपा अवरेब सुधारी।
बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
17भूत बाधा निवारण के लियेप्रनवऊं पवन कुमार खल बल पावक ग्यान घन।
जासु हृदय अगार बसहि राम सर चाप धर॥
18खोई हुई वस्तु पाने के लियेगई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू॥
19विवाह के लियेतब जनक पाई बसिष्ठ आयसु ब्याह साज संवारि कै।
मांडवी श्रुत कीरति उरमिला कुंअरि लई हंकारि कै॥
20यात्रा में सफलता के लियेप्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदय राखि कोसलपुर राजा॥
21विभिन्न कर्यों की सिद्धि के लियेमंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारि॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
जड चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि।
बंदऊं सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहुं मुनिनाथ।
हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस विधि हाथ॥
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुवीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भव भीर॥
सुनहि विमुक्त विरत अरु विषई। लहहि भगति गति संपति नई॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माही। अंतकाल रघुपति पुर जाहि ॥